' मनुष्य शरीर होने के नाते गलतियाँ सभी से होती हैं । जो उन्हें छुपाते हैं, वे गिरते चले जाते हैं पर जो बुराइयों को स्वीकार करता है उसकी आत्महीनता तिरोहित हो जाती है । '
महात्मा विजयकृष्ण गोस्वामी उन सन्यासियों में गिने जाते हैं जिन्होंने सन्यास का ध्येय समाज को ज्ञान का प्रकाश और नैतिक चेतना प्रदान करना माना । उनकी शिक्षाओं में मुख्य बात यह रही कि आत्म-हीनता का उदय, पाप और बुराइयों को छुपाने से होता है, यदि लोग अपने दोषों को स्वीकार कर लें और उसका दंड भी उसी साहस के साथ भुगत लें तो आत्मा की जटिल ग्रंथियां मुक्त होती चली जाएँगी और व्यक्ति की आत्मा में इतना बल आ जाता है कि कोई साधन-संपन्नता न होने पर भी वह संतुष्ट जीवन जी सकता है ।
लड़कपन की बात है---- विजयकृष्ण गोस्वामी अपने अन्य साथियों के साथ लकड़ी का घोड़ा बनाकर खेल रहे थे, सबने थोड़ी देर खेला, लेकिन उन्हें आनंद नहीं आया, अत: सब लड़कों ने मजिस्ट्रेट का घोड़ा चुराने की योजना बनाई । एक दोपहर जब घोड़ा घास खा रहा था, सईस को थोड़ी नींद आ गई, सब बालक घोड़े को मैदान में ले गए और उस पर चढ़ने की इच्छा पूरी करने लगे । सईस की आँख खुली तो घोड़ा न पाकर उसने मजिस्ट्रेट को इसकी सूचना दी ।
मजिस्ट्रेट बाहर आये तो उन्होंने दूर मैदान में लड़कों को उस पर सवारी करते देखा । वे उस ओर चल पड़े । मजिस्ट्रेट को आता देख सब लड़के भाग गये । एक ही लड़का था जो अब भी घोड़ा पकड़े खड़ा था । बुराई के दंड से भाग जाना उन्होंने सीखा नहीं था ।
मजिस्ट्रेट न डांट कार पूछा----- " सच बताओ, घोड़ा किसने चुराया | "
लड़के ने उत्तर दिया---- " मैंने, क्योंकि मेरी उस पर चढ़ने की इच्छा हुई, अन्य लड़के मेरे साथ खेल में शामिल हुए, अब यदि आप दंड देना चाहते हैं तो मैं खड़ा हूँ । "
बच्चे के अपूर्व साहस से वह बहुत प्रभावित हुए, वे समझ गए कि यह बालक एक दिन बड़ा सेनापति बनेगा । विजयकृष्ण गोस्वामी सेनापति तो नहीं बने, वह एक बलिष्ठ आत्मा के रूप में प्रकट हुये और उन्होंने संसार की दुःखी परिस्थितियों के संशोधन में अपना जीवन उतसर्ग किया ।
महात्मा विजयकृष्ण गोस्वामी उन सन्यासियों में गिने जाते हैं जिन्होंने सन्यास का ध्येय समाज को ज्ञान का प्रकाश और नैतिक चेतना प्रदान करना माना । उनकी शिक्षाओं में मुख्य बात यह रही कि आत्म-हीनता का उदय, पाप और बुराइयों को छुपाने से होता है, यदि लोग अपने दोषों को स्वीकार कर लें और उसका दंड भी उसी साहस के साथ भुगत लें तो आत्मा की जटिल ग्रंथियां मुक्त होती चली जाएँगी और व्यक्ति की आत्मा में इतना बल आ जाता है कि कोई साधन-संपन्नता न होने पर भी वह संतुष्ट जीवन जी सकता है ।
लड़कपन की बात है---- विजयकृष्ण गोस्वामी अपने अन्य साथियों के साथ लकड़ी का घोड़ा बनाकर खेल रहे थे, सबने थोड़ी देर खेला, लेकिन उन्हें आनंद नहीं आया, अत: सब लड़कों ने मजिस्ट्रेट का घोड़ा चुराने की योजना बनाई । एक दोपहर जब घोड़ा घास खा रहा था, सईस को थोड़ी नींद आ गई, सब बालक घोड़े को मैदान में ले गए और उस पर चढ़ने की इच्छा पूरी करने लगे । सईस की आँख खुली तो घोड़ा न पाकर उसने मजिस्ट्रेट को इसकी सूचना दी ।
मजिस्ट्रेट बाहर आये तो उन्होंने दूर मैदान में लड़कों को उस पर सवारी करते देखा । वे उस ओर चल पड़े । मजिस्ट्रेट को आता देख सब लड़के भाग गये । एक ही लड़का था जो अब भी घोड़ा पकड़े खड़ा था । बुराई के दंड से भाग जाना उन्होंने सीखा नहीं था ।
मजिस्ट्रेट न डांट कार पूछा----- " सच बताओ, घोड़ा किसने चुराया | "
लड़के ने उत्तर दिया---- " मैंने, क्योंकि मेरी उस पर चढ़ने की इच्छा हुई, अन्य लड़के मेरे साथ खेल में शामिल हुए, अब यदि आप दंड देना चाहते हैं तो मैं खड़ा हूँ । "
बच्चे के अपूर्व साहस से वह बहुत प्रभावित हुए, वे समझ गए कि यह बालक एक दिन बड़ा सेनापति बनेगा । विजयकृष्ण गोस्वामी सेनापति तो नहीं बने, वह एक बलिष्ठ आत्मा के रूप में प्रकट हुये और उन्होंने संसार की दुःखी परिस्थितियों के संशोधन में अपना जीवन उतसर्ग किया ।
No comments:
Post a Comment