' विद्दा की विभूति तो कइयों को ईश्वर देता है किंतु वासुदेवशरण जी की तरह उसकी साधना और सदुपयोग विरले ही कर पाते हैं |'
वे कहते थे---- " पढ़ने और लिखने को इतना पड़ा है कि दस जन्म लूँ तब भी पूरा न हो । जीवन का क्या भरोसा ? काम बहुत है और समय बहुत कम, जीवन व्यर्थ नहीं जाना चाहिए । "
वासुदेवशरण जी की विद्वता और सृजन शक्ति विलक्षण थी, उन्होंने जितने विपुल और बहुमुखी वाड्मय की रचना की उतनी विश्व के बहुत कम मनीषियों ने की है । वेद, उपनिषद, गीता, महाभारत, पाणिनि, कात्यायन, वररुचि, पतंजलि, कालिदास, जायसी, सूरदास से लेकर चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्यकला और पुरातत्व में उनकी गहरी पैठ थी ।
उन्होंने पाणिनि के ' अष्टाध्यायी ' पर अपना शोध-कार्य किया | उनका ग्रंथ ' इंडिया एज नोन टू पाणिनी ' को देश-विदेश में ख्याति मिली । उन्होंने भारतीय दर्शन, भारतीय-संस्कृति, भारतीय-पुरातत्व ,भारतीय-साहित्य, भारतीय-इतिहास, भारतीय-भाषा विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया ।
35 वर्षों तक उन्होंने भारतीय कला का अध्ययन किया, इसका परिणाम उनकी कई भागों में लिखी पुस्तक ' इंडियन आर्ट ' है । उनका अकेले का कार्य एक संस्था के कार्य जितना है ।
वे जंगल में नहीं गए, किसी गुफा में उन्होंने एकांतवास नहीं किया पर अपने शरीर और मन की समस्त वृतियों को समेटकर एक ध्येय के लिए जीवन का एक-एक क्षण समर्पित कर देने की एकांत-साधना उन्होंने की थी । उस महान साधना को देखते हुए वे हजार योगियों से भी अधिक काम कर गए । ऐसे प्रतिभा के धनी, ज्ञान के कोष और कर्म के वृति ही अपने सुर-दुर्लभ मनुष्य जन्म सार्थक कर पाते हैं ।
वे कहते थे---- " पढ़ने और लिखने को इतना पड़ा है कि दस जन्म लूँ तब भी पूरा न हो । जीवन का क्या भरोसा ? काम बहुत है और समय बहुत कम, जीवन व्यर्थ नहीं जाना चाहिए । "
वासुदेवशरण जी की विद्वता और सृजन शक्ति विलक्षण थी, उन्होंने जितने विपुल और बहुमुखी वाड्मय की रचना की उतनी विश्व के बहुत कम मनीषियों ने की है । वेद, उपनिषद, गीता, महाभारत, पाणिनि, कात्यायन, वररुचि, पतंजलि, कालिदास, जायसी, सूरदास से लेकर चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्यकला और पुरातत्व में उनकी गहरी पैठ थी ।
उन्होंने पाणिनि के ' अष्टाध्यायी ' पर अपना शोध-कार्य किया | उनका ग्रंथ ' इंडिया एज नोन टू पाणिनी ' को देश-विदेश में ख्याति मिली । उन्होंने भारतीय दर्शन, भारतीय-संस्कृति, भारतीय-पुरातत्व ,भारतीय-साहित्य, भारतीय-इतिहास, भारतीय-भाषा विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया ।
35 वर्षों तक उन्होंने भारतीय कला का अध्ययन किया, इसका परिणाम उनकी कई भागों में लिखी पुस्तक ' इंडियन आर्ट ' है । उनका अकेले का कार्य एक संस्था के कार्य जितना है ।
वे जंगल में नहीं गए, किसी गुफा में उन्होंने एकांतवास नहीं किया पर अपने शरीर और मन की समस्त वृतियों को समेटकर एक ध्येय के लिए जीवन का एक-एक क्षण समर्पित कर देने की एकांत-साधना उन्होंने की थी । उस महान साधना को देखते हुए वे हजार योगियों से भी अधिक काम कर गए । ऐसे प्रतिभा के धनी, ज्ञान के कोष और कर्म के वृति ही अपने सुर-दुर्लभ मनुष्य जन्म सार्थक कर पाते हैं ।
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