द्रढ़संकल्प और लगन के धनी डॉ. रामकृष्ण भाण्डारकर ने अपने साहस और पुरुषार्थ के बल पर ऐसा चिरस्मरणीय कार्य किया जिसके लिए बर्लिन विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर की मानद उपाधि से और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ' सर ' की उपाधि से सम्मानित किया ।
एम. ए. करने के बाद यद्दपि वे हाई स्कूल में हेडमास्टर बन गये पर वे इतने से संतुष्ट नही हुए, उन्होंने देवभाषा संस्कृत के प्रचार का संकल्प लिया और इसके लिए उन्होंने संस्कृत सीखी । वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान बन गये ।
1870 की बात है, एक पारसी सज्जन उनके पास एक ताम्रपत्र लाये जो पुराने खण्डहर में गड़ा था, उस पर अंकित लिपि को कोई पढ़ नहीं पा रहा था । भाण्डारकर भी उसे पढ़ नहीं पाये । यह ताम्रपत्र उनके लिए चुनौती बन गया, उसे पढ़ने के लिए उन्होंने प्राचीन लिपियों को पढ़ना चाहा । उस समय तक भारतीय प्राकृत लिपियों को पढ़ने-समझने का कार्य योरोपीय विद्वानो ने ही किया था, उन्हें प्राच्यविद्दा से संबंधित जितनी पुस्तकें मिल सकती थीं, उन्होंने पढ़ डालीं ।
पाली, प्राकृत, मागधी आदि भाषाओँ और प्राकृत लिपियों के वे विद्दा-विशारद बन गये । हमारे इतिहास की गुत्थियों को सुलझाने में इन भाषाओँ का बड़ा योगदान रहा है । एक छोटे से ताम्रपत्र से उनके जीवन को एक नया पथ मिल गया । ईश्वर ने उन्हें शोध और परीक्षण की अदभुत योग्यता प्रदान की थी ।
अब तक भारत का जो इतिहास लिखा गया था वह दूसरे लोगों की कलम से लिखा गया था, उन्होंने प्राचीन शिलालेखो, ताम्रपत्रों तथा प्राचीन पुस्तकों को पढ़कर जो निष्कर्ष निकाले उन्हें निबंध रूप में प्रकाशित किया इससे एक ओर उनका यश-सम्मान बढ़ा दूसरी ओर ऐतिहासिक तथ्य अविकृत रूप में भारतवासियों के सामने आये । उनके द्वारा की गई अप्रकाशित संस्कृत- ग्रंथों की खोज भारत के प्राचीन काल के इतिहास की रचना के लिए अत्यंत महत्व की है । उन्होंने निजी पुस्तकालयों, प्राचीन खण्डहरों और पुरानी पोथियों में छिपे पड़े ज्ञान-भण्डार को कुशल जौहरी की तरह परखा, बटोरा और अति परिश्रम से पढ़ा और उन पर गवेषणातमक रिपोर्ट लिखकर प्रकाशित किया इससे उनके बाद आने वालों के लिए शोध का मार्ग खुल गया ।
वे बम्बई विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे हों या डेक्कन कालेज के प्रोफेसर, उनके घर का दरवाजा विद्दार्थियों के लिए चौबीसों घंटे खुला रहता था । डॉ. भाण्डारकर ने भारत की भावी पीढ़ी को जो संपदा दी, उसे भुलाया नहीं जा सकता ।
एम. ए. करने के बाद यद्दपि वे हाई स्कूल में हेडमास्टर बन गये पर वे इतने से संतुष्ट नही हुए, उन्होंने देवभाषा संस्कृत के प्रचार का संकल्प लिया और इसके लिए उन्होंने संस्कृत सीखी । वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान बन गये ।
1870 की बात है, एक पारसी सज्जन उनके पास एक ताम्रपत्र लाये जो पुराने खण्डहर में गड़ा था, उस पर अंकित लिपि को कोई पढ़ नहीं पा रहा था । भाण्डारकर भी उसे पढ़ नहीं पाये । यह ताम्रपत्र उनके लिए चुनौती बन गया, उसे पढ़ने के लिए उन्होंने प्राचीन लिपियों को पढ़ना चाहा । उस समय तक भारतीय प्राकृत लिपियों को पढ़ने-समझने का कार्य योरोपीय विद्वानो ने ही किया था, उन्हें प्राच्यविद्दा से संबंधित जितनी पुस्तकें मिल सकती थीं, उन्होंने पढ़ डालीं ।
पाली, प्राकृत, मागधी आदि भाषाओँ और प्राकृत लिपियों के वे विद्दा-विशारद बन गये । हमारे इतिहास की गुत्थियों को सुलझाने में इन भाषाओँ का बड़ा योगदान रहा है । एक छोटे से ताम्रपत्र से उनके जीवन को एक नया पथ मिल गया । ईश्वर ने उन्हें शोध और परीक्षण की अदभुत योग्यता प्रदान की थी ।
अब तक भारत का जो इतिहास लिखा गया था वह दूसरे लोगों की कलम से लिखा गया था, उन्होंने प्राचीन शिलालेखो, ताम्रपत्रों तथा प्राचीन पुस्तकों को पढ़कर जो निष्कर्ष निकाले उन्हें निबंध रूप में प्रकाशित किया इससे एक ओर उनका यश-सम्मान बढ़ा दूसरी ओर ऐतिहासिक तथ्य अविकृत रूप में भारतवासियों के सामने आये । उनके द्वारा की गई अप्रकाशित संस्कृत- ग्रंथों की खोज भारत के प्राचीन काल के इतिहास की रचना के लिए अत्यंत महत्व की है । उन्होंने निजी पुस्तकालयों, प्राचीन खण्डहरों और पुरानी पोथियों में छिपे पड़े ज्ञान-भण्डार को कुशल जौहरी की तरह परखा, बटोरा और अति परिश्रम से पढ़ा और उन पर गवेषणातमक रिपोर्ट लिखकर प्रकाशित किया इससे उनके बाद आने वालों के लिए शोध का मार्ग खुल गया ।
वे बम्बई विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे हों या डेक्कन कालेज के प्रोफेसर, उनके घर का दरवाजा विद्दार्थियों के लिए चौबीसों घंटे खुला रहता था । डॉ. भाण्डारकर ने भारत की भावी पीढ़ी को जो संपदा दी, उसे भुलाया नहीं जा सकता ।
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