' जब शिष्य अपने गुरु का संदेशवाहक बन कर निकलता है, तब उसकी शक्तियां सौ गुनी हो जाती हैं और उसका चिंतन, चरित्र और व्यवहार समाज को प्रभावित करता है । '
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था--- " न मुझे भक्ति की परवाह है न मुक्ति की । मैं ऐसा वासंती जीवन जीना चाहता हूँ जिससे हर ओर प्रसन्नता और खुशहाली का वातावरण बने । "
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि दैनिक जीवन में काम में आने वाली और हमारी जीवन-यात्रा में सहायक वस्तुओं, व्यक्तियों और प्राणियों के प्रति भी मन में संवेदना नहीं है तो विराट अस्तित्व से किसी व्यक्ति का तादात्मय कैसे जुड़ सकता है । अपने आस-पास के जगत के प्रति जो संवेदनशील नहीं है, वह परमात्मा के प्रति कैसे खुल सकता है । स्रष्टि के हर कण में परमात्मा है । स्वामी विवेकानन्द के वचन हैं-----" आदर्शों की ताकत चर्मचक्षुओं से न दिखने पर भी अतुलनीय है । लेकिन जब तक वे विचार रूप में रहते हैं उनकी शक्ति परिणामकारी नहीं होती, लेकिन जब वे किसी के व्यक्तित्व और आचरण में ठोस रूप लेते हैं, तब उससे विराट शक्ति और महत परिणाम उत्पन्न होते हैं । "
जब अंतिम दिनों में वे रुग्ण थे, तब कुछ लोगों ने कहा-- " आप विश्राम क्यों
नहीं करते ? "
स्वामीजी ने कहा---- " मेरा सेवा-भाव मुझे बैठने नहीं देता । दुखियों के दर्द कों अनुभव करो और उनकी सेवा करने को आगे बढ़ो, भगवान तुम्हे सफल करेंगे । मैं तुम्हारे लिए यही वसीयत छोड़ जाता हूँ कि गरीबों, अज्ञानियों और दुखियों की सेवा के लिए प्राण-पण से लग जाओ । "
स्वामी विवेकानन्द की वीर वाणी------ जागो वीर ! सदा ही सिर पर,
काट रहा है चक्कर काल
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों ?
काटो-काटो यह भ्रम जाल ।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था--- " न मुझे भक्ति की परवाह है न मुक्ति की । मैं ऐसा वासंती जीवन जीना चाहता हूँ जिससे हर ओर प्रसन्नता और खुशहाली का वातावरण बने । "
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि दैनिक जीवन में काम में आने वाली और हमारी जीवन-यात्रा में सहायक वस्तुओं, व्यक्तियों और प्राणियों के प्रति भी मन में संवेदना नहीं है तो विराट अस्तित्व से किसी व्यक्ति का तादात्मय कैसे जुड़ सकता है । अपने आस-पास के जगत के प्रति जो संवेदनशील नहीं है, वह परमात्मा के प्रति कैसे खुल सकता है । स्रष्टि के हर कण में परमात्मा है । स्वामी विवेकानन्द के वचन हैं-----" आदर्शों की ताकत चर्मचक्षुओं से न दिखने पर भी अतुलनीय है । लेकिन जब तक वे विचार रूप में रहते हैं उनकी शक्ति परिणामकारी नहीं होती, लेकिन जब वे किसी के व्यक्तित्व और आचरण में ठोस रूप लेते हैं, तब उससे विराट शक्ति और महत परिणाम उत्पन्न होते हैं । "
जब अंतिम दिनों में वे रुग्ण थे, तब कुछ लोगों ने कहा-- " आप विश्राम क्यों
नहीं करते ? "
स्वामीजी ने कहा---- " मेरा सेवा-भाव मुझे बैठने नहीं देता । दुखियों के दर्द कों अनुभव करो और उनकी सेवा करने को आगे बढ़ो, भगवान तुम्हे सफल करेंगे । मैं तुम्हारे लिए यही वसीयत छोड़ जाता हूँ कि गरीबों, अज्ञानियों और दुखियों की सेवा के लिए प्राण-पण से लग जाओ । "
स्वामी विवेकानन्द की वीर वाणी------ जागो वीर ! सदा ही सिर पर,
काट रहा है चक्कर काल
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों ?
काटो-काटो यह भ्रम जाल ।
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