स्वामी भवानी दयाल संन्यासी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों में पहली बार जागरण का शंख फूँखा । दक्षिण अफ्रीका में रह रहे प्रवासी भारतीयों को एक सूत्र में आबद्ध किया तथा अनाचार और अत्याचार के विरुद्ध समर्थ प्रतिरोधक मोर्चा खड़ा करने के लिए उन्हें संगठित किया ।
स्वामी भवानी दयाल संन्यासी के पिता कुली प्रथा के अंतर्गत भारत से दक्षिण अफ्रीका भेजे गये थे । वहां जाकर अपनी सूझ-बूझ और चतुराई से उन्होंने अच्छी खासी जायदाद पैदा की और स्थायी रूप से वहीँ बस गये । स्वामी भवानीदयाल संन्यासी ने होश सँभालते ही देखा कि गोरे अंग्रेज किस निर्दयता से प्रवासी भारतीयों पर अत्याचार करते है । एक बार स्कूल जाते वक्त ऐसे ही अत्याचार का करुण द्रश्य देखा तो घर आकर पिता से इसका कारण पूछा तो पिता ने सच्ची किन्तु साधारण सी बात कह दी--- " इसलिए कि वे लोग बेवकूफ हैं, अनपढ़ हैं और ढंग से रहना नहीं जानते । "
यह वाक्य उनका पथ-प्रदर्शक बन गया और उन्होंने तत्क्षण ही फैसला कर लिया कि वे भारतीयों में से इन कमियों को दूर करके ही रहेंगे ताकि वे लोग मानवीय गौरव-गरिमा के अनुरूप जीवन जी सकें । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने हिन्दी को सबसे अच्छा साधन समझा । गहन चिंतन-मनन के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रवासियों में राष्ट्रीय एकता की भावना भरने, उनमे आत्मसम्मान, अनीति के प्रतिरोध और शक्ति जगाने के लिए एक - भाषा हिन्दी का ज्ञान सबसे उचित माध्यम है । अत: हिन्दी पढ़ने के लिए वे बारह वर्ष की आयु में अफ्रीका से भारत आये ।
भारत में हिन्दी विषय में अच्छी योग्यता प्राप्त करने के बात वे अफ्रीका लौटने लगे तो कुछ अंग्रेज
अधिकारियों को उनके भावी कार्यक्रम का पता चल गया । डरबन पहुँचने से पहले ही उन्हें शासकीय आदेश हुआ कि वे भारत लौट जायें । वे ट्रांसवाल उतरे, वहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, मुकदमा चला किन्तु ससम्मान बरी हो गये और पिता के पास जोहान्सवर्ग पहुँचे । कुछ समय बाद पिता का देहान्त हो गया, अपने हिस्से की सम्पति भी विमाता को सौंपकर उन्होंने संन्यास ले लिया और लोक-सेवा के कार्यों में जुट गये ।
स्वामी भवानीदयाल ने हिन्दी-प्रचार के लिये दक्षिण अफ्रीका में जो सबसे पहला कार्य किया वह यह कि स्वयं तो उनके बीच हिन्दी बोलते ही थे, प्रवासियों को भी हिन्दी बोलने कि प्रेरणा दिया करते । जब वे टूटी-फूटी हिन्दी बोलते तो उनके शब्दों और वाक्यों में सुधार करते जाते । इस प्रकार उन्होंने राह गली हाट-बाजार मे हिन्दी की मौखिक शिक्षा आरम्भ कर दी । उन्होंने भारतीय बच्चों के लिए अनेक प्रारम्भिक पाठशालाएं खोलीं, इनमे कोई शुल्क नहीं लिया जाता था, उनकी प्रेरणा से जो शिक्षक बालकों को हिन्दी पढ़ाते थे वे किसी प्रकार का पारिश्रमिक नहीं लिया करते थे
उन्होंने बच्चों को पढ़ाने के लिये बड़ी ही रोचक, शिक्षाप्रद और राष्ट्रीय भावों से ओत -प्रोत बहुत सी छोटी -छोटी पुस्तकें लिखीं । हिन्दी प्रचार के लिए उनका एक काम था --- भाषण -कार्यक्रम | स्वामीजी भारतीय बस्तियों में एक के बाद दूसरे घर मिलन -गोष्ठियां रखते जिनमे देश भक्ति , मानव के मौलिक अधिकार और अफ्रीका में भारतीयों की समस्याओं पर भाषण दिया करते । इससे दोहरा लाभ हुआ -- एक तो हिन्दी का प्रचार हुआ , दूसरे राष्ट्रीय -जागरण और समस्याओं के समाधान के लिए एकता , दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीय अपने अधिकारों के लिये उठ खड़े हुए । उन्होंने अनेक हिन्दी संस्थाओं की स्थापना की । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों को प्रतिनिधित्व दिलाने का श्रेय स्वामी भवानी दयाल को ही था । कांग्रेस के अधिवेशनों में प्रवासी भारतीयों को अपने दस प्रतिनिधि भेजने का अधिकार स्वामीजी के प्रयत्नो और सेवाओं का फल था । 59 वर्ष की आयु में यह महानतम विभूति इस संसार से विदा हो गई ।
भारत , भारतीय और भारतीय भाषा की सेवा में आहुत उस व्यक्तित्व को पाकर साधुता भी धन्य हो गई ।
स्वामी भवानी दयाल संन्यासी के पिता कुली प्रथा के अंतर्गत भारत से दक्षिण अफ्रीका भेजे गये थे । वहां जाकर अपनी सूझ-बूझ और चतुराई से उन्होंने अच्छी खासी जायदाद पैदा की और स्थायी रूप से वहीँ बस गये । स्वामी भवानीदयाल संन्यासी ने होश सँभालते ही देखा कि गोरे अंग्रेज किस निर्दयता से प्रवासी भारतीयों पर अत्याचार करते है । एक बार स्कूल जाते वक्त ऐसे ही अत्याचार का करुण द्रश्य देखा तो घर आकर पिता से इसका कारण पूछा तो पिता ने सच्ची किन्तु साधारण सी बात कह दी--- " इसलिए कि वे लोग बेवकूफ हैं, अनपढ़ हैं और ढंग से रहना नहीं जानते । "
यह वाक्य उनका पथ-प्रदर्शक बन गया और उन्होंने तत्क्षण ही फैसला कर लिया कि वे भारतीयों में से इन कमियों को दूर करके ही रहेंगे ताकि वे लोग मानवीय गौरव-गरिमा के अनुरूप जीवन जी सकें । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने हिन्दी को सबसे अच्छा साधन समझा । गहन चिंतन-मनन के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रवासियों में राष्ट्रीय एकता की भावना भरने, उनमे आत्मसम्मान, अनीति के प्रतिरोध और शक्ति जगाने के लिए एक - भाषा हिन्दी का ज्ञान सबसे उचित माध्यम है । अत: हिन्दी पढ़ने के लिए वे बारह वर्ष की आयु में अफ्रीका से भारत आये ।
भारत में हिन्दी विषय में अच्छी योग्यता प्राप्त करने के बात वे अफ्रीका लौटने लगे तो कुछ अंग्रेज
अधिकारियों को उनके भावी कार्यक्रम का पता चल गया । डरबन पहुँचने से पहले ही उन्हें शासकीय आदेश हुआ कि वे भारत लौट जायें । वे ट्रांसवाल उतरे, वहां उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, मुकदमा चला किन्तु ससम्मान बरी हो गये और पिता के पास जोहान्सवर्ग पहुँचे । कुछ समय बाद पिता का देहान्त हो गया, अपने हिस्से की सम्पति भी विमाता को सौंपकर उन्होंने संन्यास ले लिया और लोक-सेवा के कार्यों में जुट गये ।
स्वामी भवानीदयाल ने हिन्दी-प्रचार के लिये दक्षिण अफ्रीका में जो सबसे पहला कार्य किया वह यह कि स्वयं तो उनके बीच हिन्दी बोलते ही थे, प्रवासियों को भी हिन्दी बोलने कि प्रेरणा दिया करते । जब वे टूटी-फूटी हिन्दी बोलते तो उनके शब्दों और वाक्यों में सुधार करते जाते । इस प्रकार उन्होंने राह गली हाट-बाजार मे हिन्दी की मौखिक शिक्षा आरम्भ कर दी । उन्होंने भारतीय बच्चों के लिए अनेक प्रारम्भिक पाठशालाएं खोलीं, इनमे कोई शुल्क नहीं लिया जाता था, उनकी प्रेरणा से जो शिक्षक बालकों को हिन्दी पढ़ाते थे वे किसी प्रकार का पारिश्रमिक नहीं लिया करते थे
उन्होंने बच्चों को पढ़ाने के लिये बड़ी ही रोचक, शिक्षाप्रद और राष्ट्रीय भावों से ओत -प्रोत बहुत सी छोटी -छोटी पुस्तकें लिखीं । हिन्दी प्रचार के लिए उनका एक काम था --- भाषण -कार्यक्रम | स्वामीजी भारतीय बस्तियों में एक के बाद दूसरे घर मिलन -गोष्ठियां रखते जिनमे देश भक्ति , मानव के मौलिक अधिकार और अफ्रीका में भारतीयों की समस्याओं पर भाषण दिया करते । इससे दोहरा लाभ हुआ -- एक तो हिन्दी का प्रचार हुआ , दूसरे राष्ट्रीय -जागरण और समस्याओं के समाधान के लिए एकता , दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीय अपने अधिकारों के लिये उठ खड़े हुए । उन्होंने अनेक हिन्दी संस्थाओं की स्थापना की । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों को प्रतिनिधित्व दिलाने का श्रेय स्वामी भवानी दयाल को ही था । कांग्रेस के अधिवेशनों में प्रवासी भारतीयों को अपने दस प्रतिनिधि भेजने का अधिकार स्वामीजी के प्रयत्नो और सेवाओं का फल था । 59 वर्ष की आयु में यह महानतम विभूति इस संसार से विदा हो गई ।
भारत , भारतीय और भारतीय भाषा की सेवा में आहुत उस व्यक्तित्व को पाकर साधुता भी धन्य हो गई ।
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