संत पायर जिस कार्यालय में बैठकर काम करते थे उसकी चार दीवारों में --- महात्मा गांधी ,
अल्बर्ट श्वाइत्जर, फ्रायड जाक नैनसेन , और जर्मनी के एने फ्रैंक के चित्र टंगे थे और उनसे वे सत्याग्रह , संघर्ष , समभाव और प्राणिमात्र के प्रति प्रेम की प्रेरणा ग्रहण करते थे ।
पायर का जन्म बेल्जियम में हुआ था , शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे बेल्जियम में प्रोफेसर हो गये थे । इसी बीच द्धितीय विश्वयुद्ध हुआ और वे सेना में भर्ती हो गये ।
पायर जिस आफिस में सैनिक अफसर की हैसियत से काम करते थे उसकी दीवार पर एक फ्रेम में मढ़ा हुआ एने फ्रैंक का वाक्य टंगा था ----- " प्रकृति बदलेगी और मनुष्य पुनः अच्छा बनेगा । बुरा दिन समाप्त हो जायेगा और संसार एक बार फिर देख सकेगा ----- शांति व्यवस्था और सुख । "
वे इन वाक्य पर विचार करने लगे ----- क्या सचमुच युग बदल सकता है ?
उन्होंने इतिहास के पृष्ठ उलट कर देखे तो समझा ---- यदि संसार के सब लोग अच्छे बन जायें तो युग स्वर्गीय परिस्थितियों में क्यों नहीं बदल सकता ?
उनके मन में विचार आया कि युग बदलने के , संसार मे शांति व्यवस्था स्थापित करने के महान कार्य का आरम्भ स्वयं से किया जाये ---- " हमारे पास जो भी शक्ति और योग्यता है उसे इस प्रयोजन में जुटाने के लिये हमें तो लग पड़ना ही चाहिये शेष की बात शेष जाने । "
यह विचार आते ही पायर आजीविका को छोड़कर पादरी हो गये और सामाजिक जीवन को अच्छा व सुव्यवस्थित बनाने के कार्य में जुट गये ।
बीमारों की सेवा , जहां स्कूल न थे वहां स्कूलों की स्थापना और रूस से आये शरणार्थियों की सेवा में उन्होंने अपना तन , मन , धन सब कुछ जुटा दिया । शरणार्थियों की समस्या उन दिनों बेल्जियम पर भार थी । 150000 तो केवल बूढ़े , बीमार व बच्चे थे , 20000 टी.वी. के मरीज और लाखों की संख्या में वृद्ध व बच्चे थे । उनके निवास , औषधि तथा शिक्षण के लिये दिन रात काम करके उन्होंने यह दिखा दिया कि असहायों की सेवा और दलितों के उत्थान कार्य से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है इससे मनुष्य को सच्ची शांति मिलती है । उनके इन महान कार्यों के कारण उन्हें शांति के लिये नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया ।
कर्तव्य -निष्ठ के लिये कर्तव्य ही सुख है । अपनी सम्पति वे पहले ही जनता की सेवा में सौंप चुके थे , नोबेल पुरस्कार में प्राप्त राशि उन्होंने शरणार्थियों के लिये दान कर दी ।
अल्बर्ट श्वाइत्जर, फ्रायड जाक नैनसेन , और जर्मनी के एने फ्रैंक के चित्र टंगे थे और उनसे वे सत्याग्रह , संघर्ष , समभाव और प्राणिमात्र के प्रति प्रेम की प्रेरणा ग्रहण करते थे ।
पायर का जन्म बेल्जियम में हुआ था , शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे बेल्जियम में प्रोफेसर हो गये थे । इसी बीच द्धितीय विश्वयुद्ध हुआ और वे सेना में भर्ती हो गये ।
पायर जिस आफिस में सैनिक अफसर की हैसियत से काम करते थे उसकी दीवार पर एक फ्रेम में मढ़ा हुआ एने फ्रैंक का वाक्य टंगा था ----- " प्रकृति बदलेगी और मनुष्य पुनः अच्छा बनेगा । बुरा दिन समाप्त हो जायेगा और संसार एक बार फिर देख सकेगा ----- शांति व्यवस्था और सुख । "
वे इन वाक्य पर विचार करने लगे ----- क्या सचमुच युग बदल सकता है ?
उन्होंने इतिहास के पृष्ठ उलट कर देखे तो समझा ---- यदि संसार के सब लोग अच्छे बन जायें तो युग स्वर्गीय परिस्थितियों में क्यों नहीं बदल सकता ?
उनके मन में विचार आया कि युग बदलने के , संसार मे शांति व्यवस्था स्थापित करने के महान कार्य का आरम्भ स्वयं से किया जाये ---- " हमारे पास जो भी शक्ति और योग्यता है उसे इस प्रयोजन में जुटाने के लिये हमें तो लग पड़ना ही चाहिये शेष की बात शेष जाने । "
यह विचार आते ही पायर आजीविका को छोड़कर पादरी हो गये और सामाजिक जीवन को अच्छा व सुव्यवस्थित बनाने के कार्य में जुट गये ।
बीमारों की सेवा , जहां स्कूल न थे वहां स्कूलों की स्थापना और रूस से आये शरणार्थियों की सेवा में उन्होंने अपना तन , मन , धन सब कुछ जुटा दिया । शरणार्थियों की समस्या उन दिनों बेल्जियम पर भार थी । 150000 तो केवल बूढ़े , बीमार व बच्चे थे , 20000 टी.वी. के मरीज और लाखों की संख्या में वृद्ध व बच्चे थे । उनके निवास , औषधि तथा शिक्षण के लिये दिन रात काम करके उन्होंने यह दिखा दिया कि असहायों की सेवा और दलितों के उत्थान कार्य से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है इससे मनुष्य को सच्ची शांति मिलती है । उनके इन महान कार्यों के कारण उन्हें शांति के लिये नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया ।
कर्तव्य -निष्ठ के लिये कर्तव्य ही सुख है । अपनी सम्पति वे पहले ही जनता की सेवा में सौंप चुके थे , नोबेल पुरस्कार में प्राप्त राशि उन्होंने शरणार्थियों के लिये दान कर दी ।
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