एण्टन चेखव उन्नीसवीं शताब्दी के उन गिने -चुने साहित्यकारों में से हैं जिनकी रचनाएं समाज पर अपना प्रभाव डाल सकीं और अब भी वे उतनी जीवंत और स्फूर्त बनी हुई हैं । कुछ वर्षों पूर्व बम्बई में भारतीय जन नाट्यसंघ द्वारा एण्टन चेखव द्वारा रचित ' वार्ड न. 6 ' नामक नाटक खेला गया । यह नाटक रुसी भाषा से अनूदित किया गया था और बहुत लोकप्रिय हुआ । इसमें बुद्धिजीवी वर्ग की नपुंसक अकर्मण्यता पर तीखा प्रहार है । रूस में यह नाटक बहुत लोकप्रिय हुआ , इसे जब लेनिन ने देखा तो इतने व्यग्र हो उठे कि अपने स्थान पर बैठ न सके , उन्ही के शब्दों में उन्हें लगा कि वे स्वयं इस नाटक के पात्र हैं । इस नाटक में इस तथ्य को उभारा गया है कि हिंसा और अत्याचार को रोकने के लिए निष्क्रिय विरोध , उपेक्षा व उदासीनता से काम नहीं चलता , उसे रोकने के लिए अदम्य और कठोर संघर्ष की आवश्यकता है तभी उसमे सफल हुआ जा सकता है । उनकी रचनाओं में सत्य को बुलंदगी से कहा गया है , ऐसा कहने में उनका उद्देश्य मनुष्य को सही दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रेरित करना है । उन्होंने एक स्थान पर लिखा है ---- ईश्वर की जमीन कितनी सुन्दर है । केवल हममें ही कितना अन्याय , कितनी अनम्रता और ऐंठ है । हम ज्ञान के स्थान पर अभिमान और छल -छिद्र तथा ईमानदारी के पीछे धूर्तता ही अधिक प्रकट करते हैं ।
चेखव का जन्म रूस में 1860 में हुआ , उनके पिता बहुत क्रोधी थे , उन्हें बहुत मारते थे । चेखव का बचपन बिना हँसे -खेले ही बीता । बचपन में वे बहुत मंदबुद्धि थे , एक भी कक्षा पास नहीं कर सके । स्कूल छुड़ा कर एक दर्जी की दुकान पर रखा गया लेकिन वहां भी महीनो के प्रयत्न के बाद एक पायजामा भी नहीं सिल सके ।
जब जीवन के यथार्थ धरातल पर उन्हें उतरना पड़ा तो परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उनकी बौद्धिक क्षमता जाग उठी , उन्होंने शिक्षा व ज्ञानार्जन आरम्भ किया । लगन और निष्ठा के बल पर उन्होंने ग्रीक , लैटिन , जर्मन और फ्रैंच भाषाएँ सीख लीं । 24 वर्ष की अवस्था में ही उनका पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ । काम के प्रति उनके मन में ऎसी लगन जागी कि जब लिखने बैठते तो तब तक लिखते जाते जब तक उँगलियाँ दर्द के कारण काम करने से इनकार न कर दें । ऐसी स्थिति में वे थक कर सो नहीं जाते थे , पढ़ने लगते थे । उनमे धैर्य इतना था कि प्रकाशक रचनाएं वापस कर देते तो बिना खिन्न हुए दुबारा लिखने बैठ जाते । 1887 में उन्हें पुश्किन पुरस्कार मिला । चेखव के जीवन की अंतिम घड़ियाँ बड़ी दुःखपूर्ण रहीं । परिस्थितियों से उन्होंने जीवन भर संघर्ष किया । जीवन में तो उन्हें उपेक्षा ओर तिरस्कार का सामना करना पड़ा लेकिन मरने के बाद वे महान आत्मा के महान शिल्पी कहलाये ।
चेखव का जन्म रूस में 1860 में हुआ , उनके पिता बहुत क्रोधी थे , उन्हें बहुत मारते थे । चेखव का बचपन बिना हँसे -खेले ही बीता । बचपन में वे बहुत मंदबुद्धि थे , एक भी कक्षा पास नहीं कर सके । स्कूल छुड़ा कर एक दर्जी की दुकान पर रखा गया लेकिन वहां भी महीनो के प्रयत्न के बाद एक पायजामा भी नहीं सिल सके ।
जब जीवन के यथार्थ धरातल पर उन्हें उतरना पड़ा तो परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उनकी बौद्धिक क्षमता जाग उठी , उन्होंने शिक्षा व ज्ञानार्जन आरम्भ किया । लगन और निष्ठा के बल पर उन्होंने ग्रीक , लैटिन , जर्मन और फ्रैंच भाषाएँ सीख लीं । 24 वर्ष की अवस्था में ही उनका पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ । काम के प्रति उनके मन में ऎसी लगन जागी कि जब लिखने बैठते तो तब तक लिखते जाते जब तक उँगलियाँ दर्द के कारण काम करने से इनकार न कर दें । ऐसी स्थिति में वे थक कर सो नहीं जाते थे , पढ़ने लगते थे । उनमे धैर्य इतना था कि प्रकाशक रचनाएं वापस कर देते तो बिना खिन्न हुए दुबारा लिखने बैठ जाते । 1887 में उन्हें पुश्किन पुरस्कार मिला । चेखव के जीवन की अंतिम घड़ियाँ बड़ी दुःखपूर्ण रहीं । परिस्थितियों से उन्होंने जीवन भर संघर्ष किया । जीवन में तो उन्हें उपेक्षा ओर तिरस्कार का सामना करना पड़ा लेकिन मरने के बाद वे महान आत्मा के महान शिल्पी कहलाये ।
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