' केवल एक संयमी सम्राट के हो जाने से भारत का वह काल इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से प्रसिद्ध है । ' पिता चन्द्रगुप्त की मृत्यु के बाद सन 335 के लगभग समुद्रगुप्त ने राज्य-भार संभाला | सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने प्रयास बल पर सैकड़ों भागों में विभक्त भारत-भूमि को एक करके वैदिक रीति से अश्वमेधयज्ञ का आयोजन किया और भारत के चक्रवर्ती सम्राट के पद पर प्रतिष्ठित हुआ । यह उसका उज्जवल चरित्र और नि:स्वार्थ मंतव्य ही था कि उसके महान राष्ट्रीय उद्देश्य से प्रभावित होकर अधिकांश राजा एकछत्र हो गये ।
यह समुद्रगुप्त के संयमपूर्ण चरित्र का ही बल था कि इतने विशाल साम्राज्य का एकछत्र स्वामी होने पर भी उसका ध्यान भोग-विलास की ओर नहीं गया । उसने प्रजा के कल्याण के अनेकों कार्य किये, जिससे भारत में धन-धान्य की वृद्धि हुई और प्रजा फलने-फूलने लगी । बुद्धिमान समुद्रगुप्त को प्रसन्नता के साथ चिंता हुई कि धन-धान्य की बहुलता से प्रजा आलसी और विलासी न हो जाये । जिससे राष्ट्र में पुन: विघटन और निर्बलता आ सकती है ।
अत: राष्ट्र को आलस्य के अभिशाप से बचाने के लिए सम्राट ने स्वयं संगीत, काव्य और चित्रकला का अभ्यास किया और उसमे निष्णांत बना । वह जानता था कि यदि वह स्वयं इन कलाओं तथा विशेषताओं को अपने जीवन में उतारेगा तो स्वभावतः प्रजा भी उसका अनुकरण करेगी
समुद्रगुप्त वीर, कर्मठ और कर्तव्यनिष्ठ होने के साथ महान कलाविद और देशभक्त सम्राट था ।
यह समुद्रगुप्त के संयमपूर्ण चरित्र का ही बल था कि इतने विशाल साम्राज्य का एकछत्र स्वामी होने पर भी उसका ध्यान भोग-विलास की ओर नहीं गया । उसने प्रजा के कल्याण के अनेकों कार्य किये, जिससे भारत में धन-धान्य की वृद्धि हुई और प्रजा फलने-फूलने लगी । बुद्धिमान समुद्रगुप्त को प्रसन्नता के साथ चिंता हुई कि धन-धान्य की बहुलता से प्रजा आलसी और विलासी न हो जाये । जिससे राष्ट्र में पुन: विघटन और निर्बलता आ सकती है ।
अत: राष्ट्र को आलस्य के अभिशाप से बचाने के लिए सम्राट ने स्वयं संगीत, काव्य और चित्रकला का अभ्यास किया और उसमे निष्णांत बना । वह जानता था कि यदि वह स्वयं इन कलाओं तथा विशेषताओं को अपने जीवन में उतारेगा तो स्वभावतः प्रजा भी उसका अनुकरण करेगी
समुद्रगुप्त वीर, कर्मठ और कर्तव्यनिष्ठ होने के साथ महान कलाविद और देशभक्त सम्राट था ।
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