' मनुष्य का शरीर एक शक्ति उत्पादक डायनेमो की तरह है । इससे नित्य निरंतर महत्वपूर्ण शक्तियों का उत्पादन होता रहता है । जब इन्हें रोककर, संग्रहीत कर उचित दिशा में लगा दिया जाता है तो महान कार्य संपन्न होते हैं और जब इसे विषय भोगों के छिद्रों में नष्ट कर दिया जाता है तो न केवल मनुष्य बल्कि राष्ट्र भी दीन-हीन, असहाय, परतंत्र-परावलम्बी बन जाता है । '
हर राष्ट्र की समर्थता, नागरिकों की प्रखरता उनके संयम और चरित्र-निष्ठा पर निर्भर करती है
पं. श्रीराम आचार्य ने वाड्मय ' साधना पद्धतियों का ज्ञान और विज्ञान ' में इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है----
' इस सदी की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक दिव्तीय विश्वयुद्ध भी है, जिसमे देखते-देखते विश्व की जानी-मानी शक्तियों ने नवोदित शक्ति जर्मन-सत्ता के समक्ष घुटने टेक दिये । जर्मन सैनिकों द्वारा पोलैंड पर किये गये हमले से विश्वयुद्ध शुरू हुआ । सारे विश्व ने कुछ ही दिनों में सुना कि ' ग्रेट ब्रिटेन ' के बाद विश्व की सबसे बड़ी शक्ति माना जाने वाला राष्ट्र फ्रांस बिना किसी प्रतिरोध के आत्म समर्पण कर रहा है । ब्रिटेन के बाद फ्रांस ही था जिसके उपनिवेश सुदूर पूर्व में दक्षिण एशिया से उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका तक फैले हुए थे । नेपोलियन जिस राष्ट्र में पैदा हुआ--- जहां की राज्य क्रान्ति ने विश्व की राजनीति को एक नया मोड़ दे दिया, उसका ऐसा पराभव देखकर आश्चर्य होना स्वाभाविक ही था l'
" मनीषियों को यह निष्कर्ष निकालने में अधिक समय नहीं लगा कि इसका कारण क्या है ? उन्होंने पाया कि असंयम ने तो जन शक्ति को खोखला बनाया । भोग प्रधान जीवनक्रम ने उस राष्ट्र कों छूंछ बनाकर रख दिया । जो राष्ट्र विश्व की तीन चौथाई महँगी शराब की पूर्ति करता हो, वह स्वयं उससे कैसे अछूता रहता । नैतिक मर्यादाएं भंग हो जाने से जर्मनी को फ्रांस को पराजित करने में कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा । वस्तुतः भोग-विलास की ज्वाला में जल रहे फ्रांस का पतन नहीं किया गया--- उसने स्वयं अपने को निर्बल बनाकर आक्रान्ताओं को निमंत्रण दे दिया था । "
उन्होंने आगे लिखा है---- " कामुकता का रुझान जो कभी फ्रांस को अपने ग्रास में लिए था--- सारे विश्व में फैला हुआ है । न्यूड कॉलोनी बसाई जा रहीं हैं, नैतिक मूल्यों को एक ताक पर रखकर उपभोग को ही सब कुछ बताया जा रहा है । यह किसी भी समाज को जर्जर कर देने भर के लिए पर्याप्त है । "
' भारतीय अध्यात्म का युगों-युगों से यह शिक्षण रहा है कि मनुष्य यदि स्वयं प्रयास कर अपनी शक्ति के अपव्यय को रोक सके तो इस शक्ति संचय से वो विपुल विभूतियों का अधिपति बन सकता है । '
हर राष्ट्र की समर्थता, नागरिकों की प्रखरता उनके संयम और चरित्र-निष्ठा पर निर्भर करती है
पं. श्रीराम आचार्य ने वाड्मय ' साधना पद्धतियों का ज्ञान और विज्ञान ' में इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है----
' इस सदी की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक दिव्तीय विश्वयुद्ध भी है, जिसमे देखते-देखते विश्व की जानी-मानी शक्तियों ने नवोदित शक्ति जर्मन-सत्ता के समक्ष घुटने टेक दिये । जर्मन सैनिकों द्वारा पोलैंड पर किये गये हमले से विश्वयुद्ध शुरू हुआ । सारे विश्व ने कुछ ही दिनों में सुना कि ' ग्रेट ब्रिटेन ' के बाद विश्व की सबसे बड़ी शक्ति माना जाने वाला राष्ट्र फ्रांस बिना किसी प्रतिरोध के आत्म समर्पण कर रहा है । ब्रिटेन के बाद फ्रांस ही था जिसके उपनिवेश सुदूर पूर्व में दक्षिण एशिया से उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका तक फैले हुए थे । नेपोलियन जिस राष्ट्र में पैदा हुआ--- जहां की राज्य क्रान्ति ने विश्व की राजनीति को एक नया मोड़ दे दिया, उसका ऐसा पराभव देखकर आश्चर्य होना स्वाभाविक ही था l'
" मनीषियों को यह निष्कर्ष निकालने में अधिक समय नहीं लगा कि इसका कारण क्या है ? उन्होंने पाया कि असंयम ने तो जन शक्ति को खोखला बनाया । भोग प्रधान जीवनक्रम ने उस राष्ट्र कों छूंछ बनाकर रख दिया । जो राष्ट्र विश्व की तीन चौथाई महँगी शराब की पूर्ति करता हो, वह स्वयं उससे कैसे अछूता रहता । नैतिक मर्यादाएं भंग हो जाने से जर्मनी को फ्रांस को पराजित करने में कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा । वस्तुतः भोग-विलास की ज्वाला में जल रहे फ्रांस का पतन नहीं किया गया--- उसने स्वयं अपने को निर्बल बनाकर आक्रान्ताओं को निमंत्रण दे दिया था । "
उन्होंने आगे लिखा है---- " कामुकता का रुझान जो कभी फ्रांस को अपने ग्रास में लिए था--- सारे विश्व में फैला हुआ है । न्यूड कॉलोनी बसाई जा रहीं हैं, नैतिक मूल्यों को एक ताक पर रखकर उपभोग को ही सब कुछ बताया जा रहा है । यह किसी भी समाज को जर्जर कर देने भर के लिए पर्याप्त है । "
' भारतीय अध्यात्म का युगों-युगों से यह शिक्षण रहा है कि मनुष्य यदि स्वयं प्रयास कर अपनी शक्ति के अपव्यय को रोक सके तो इस शक्ति संचय से वो विपुल विभूतियों का अधिपति बन सकता है । '
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