सज्जनता, सत्यता एवं कर्तव्यनिष्ठा की जीती-जागती मूर्ति श्री बदरुद्दीन तैयब जितने धनी व्यक्ति थे उतने ही विद्वान तथा न्याय-निष्ठ भी थे | उनका जन्म 1844 में बम्बई के बहुत संपन्न परिवार में हुआ था ।
तैयब जी ने देखा कि बम्बई हाईकोर्ट मे अंग्रेज जज तथा वकील आपस में संगठित होकर भारतीयों का न केवल शोषण करते हैं बल्कि यदि कोई भारतीय वकील वहां जाकर वकालत करना चाहे तो उसे टिकने नहीं देते । यह स्थिति तैयब जी को असह्य हो गई और उन्होंने इंग्लैंड जाकर बैरिस्टरी पास करने और बम्बई हाईकोर्ट में वकालत करने का निश्चय किया । अपने निश्चय के अनुसार वे इंग्लैंड से प्रथम श्रेणी में बैरिस्टरी पास करके आये और बम्बई हाईकोर्ट में वकालत करने लगे । उनकी योग्यता से अंग्रेजों के हौसले पस्त हो गये । और वे भारतीयों के साथ सहयोग करने पर विवश हो गये | अपने परिश्रम और द्रढ़ता से उन्होंने भारतीय वकीलों के लिये बंबई हाईकोर्ट में स्थान बना दिया ।
1860 में जब वे इंगलैंड में पढ़ रहे थे, उस समय वहां छात्रों के बीच एक बार लेटिन, फ्रेंच तथा अंग्रेजी भाषा में एक प्रतियोगिता आयोजित की गई, जिसकी तैयारी के लिए 18 माह की अवधि रखी गई । यह प्रतियोगिता उन्ही छात्रों के बीच थी जो लेटिन और फ्रेंच भाषा नहीं जानते थे । उस समय अंग्रेज भारतीयों को बहुत कमजोर समझते थे । यह प्रतियोगिता उनके लिए देश की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई । आप तन-मन से लेटिन तथा फ्रेंच भाषाओँ के अध्ययन में लग गये । और जब प्रतियोगिता मे उतरे तो सैकड़ों यूरोपीय छात्रों के बीच सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुए । उनकी योग्यता ने यूरोपियन्स की धारणा कों बदल दिया । उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि विद्दा परमात्मा की देन है उस पर किसी का एकाधिकार नहीं, जो भी परिश्रम पूर्वक अध्ययन करता है, उसे प्राप्त हो जाती है ।
तैयब जी ने देखा कि बम्बई हाईकोर्ट मे अंग्रेज जज तथा वकील आपस में संगठित होकर भारतीयों का न केवल शोषण करते हैं बल्कि यदि कोई भारतीय वकील वहां जाकर वकालत करना चाहे तो उसे टिकने नहीं देते । यह स्थिति तैयब जी को असह्य हो गई और उन्होंने इंग्लैंड जाकर बैरिस्टरी पास करने और बम्बई हाईकोर्ट में वकालत करने का निश्चय किया । अपने निश्चय के अनुसार वे इंग्लैंड से प्रथम श्रेणी में बैरिस्टरी पास करके आये और बम्बई हाईकोर्ट में वकालत करने लगे । उनकी योग्यता से अंग्रेजों के हौसले पस्त हो गये । और वे भारतीयों के साथ सहयोग करने पर विवश हो गये | अपने परिश्रम और द्रढ़ता से उन्होंने भारतीय वकीलों के लिये बंबई हाईकोर्ट में स्थान बना दिया ।
1860 में जब वे इंगलैंड में पढ़ रहे थे, उस समय वहां छात्रों के बीच एक बार लेटिन, फ्रेंच तथा अंग्रेजी भाषा में एक प्रतियोगिता आयोजित की गई, जिसकी तैयारी के लिए 18 माह की अवधि रखी गई । यह प्रतियोगिता उन्ही छात्रों के बीच थी जो लेटिन और फ्रेंच भाषा नहीं जानते थे । उस समय अंग्रेज भारतीयों को बहुत कमजोर समझते थे । यह प्रतियोगिता उनके लिए देश की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई । आप तन-मन से लेटिन तथा फ्रेंच भाषाओँ के अध्ययन में लग गये । और जब प्रतियोगिता मे उतरे तो सैकड़ों यूरोपीय छात्रों के बीच सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुए । उनकी योग्यता ने यूरोपियन्स की धारणा कों बदल दिया । उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि विद्दा परमात्मा की देन है उस पर किसी का एकाधिकार नहीं, जो भी परिश्रम पूर्वक अध्ययन करता है, उसे प्राप्त हो जाती है ।
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