श्री आर्यनायकमजी लंका में जन्मे ओर शान्ति निकेतन में पढ़े थे । आर्यनायकमजी का जीवन सेवा व साधना का अदभुत मिश्रण था । नई शिक्षा का काम बापू ने आर्यनायकमजी को सौंपा था । एक बार गाँधीजी ने उनसे कहा था----- " देखो, यह नई शिक्षा का काम मेरे जीवन का अन्तिम कार्य है और यदि भगवान ने इसे पूरा करने दिया तो भारत का नक्शा ही बदल जायेगा । आज की शिक्षा तो निकम्मी है, जो लड़के आज स्कूल-कालेज में शिक्षा पाते हैं, उनको किताबी ज्ञान भले ही हो जाता हो जाता हो, पर जीवन के लिए किताबी ज्ञान के अलावा और भी कुछ चाहिए । यदि यह किताबी ज्ञान हमारे शारीरिक नैतिक अंगों को निर्बल और निकम्मा बना देता है, तो मैं कहूँगा कि मुझे तुम्हारा यह ज्ञान नहीं चाहिए । हमें तो ऐसी शिक्षा चाहिए जो बच्चों की पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें उत्पादक श्रम करने को प्रोत्साहित करे । यह नई शिक्षा द्वारा ही संभव हो सकता है । मेरी स्वराज्य की कल्पना नई-शिक्षा में छिपी हुई है । "
श्री आर्यनायकम ने गाँधीजी के इसी आदर्श को सामने रख कर नई-शिक्षा के काम बढ़ाने में अथक परिश्रम किया । नई-शिक्षा के बारे में उन्होंने सारे संसार को भी जानकारी कराई थी । आप 30 वर्ष तक सेवाग्राम में रहे और हजारों शिक्षकों को नई तालीम की शिक्षा दी और देश भर में उसकी ज्योति फैलाई । किन्तु गांधीजी के बाद सरकार ने नई शिक्षा के कार्य को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी लेना कम कर दिया, इससे आर्यनायकमजी बड़े दुःखी थे ।
आर्यनायकमजी बड़े स्पष्ट वक्ता थे, वर्तमान शिक्षा प्रणाली से वे असंतुष्ट थे, वे कहा करते थे कि हमारे देश में बालकों की उपेक्षा हो रही है, उनका विश्वास था कि यदि देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना और आत्मनिर्भरता की भावना पैदा करना है तो नई-शिक्षा द्वारा ही यह संभव है । इसी नई शिक्षा के बालक अपना जीवन सुखी, संतोषी और स्वावलंबी बना सकते हैं ।
श्री आर्यनायकम ने गाँधीजी के इसी आदर्श को सामने रख कर नई-शिक्षा के काम बढ़ाने में अथक परिश्रम किया । नई-शिक्षा के बारे में उन्होंने सारे संसार को भी जानकारी कराई थी । आप 30 वर्ष तक सेवाग्राम में रहे और हजारों शिक्षकों को नई तालीम की शिक्षा दी और देश भर में उसकी ज्योति फैलाई । किन्तु गांधीजी के बाद सरकार ने नई शिक्षा के कार्य को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी लेना कम कर दिया, इससे आर्यनायकमजी बड़े दुःखी थे ।
आर्यनायकमजी बड़े स्पष्ट वक्ता थे, वर्तमान शिक्षा प्रणाली से वे असंतुष्ट थे, वे कहा करते थे कि हमारे देश में बालकों की उपेक्षा हो रही है, उनका विश्वास था कि यदि देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना और आत्मनिर्भरता की भावना पैदा करना है तो नई-शिक्षा द्वारा ही यह संभव है । इसी नई शिक्षा के बालक अपना जीवन सुखी, संतोषी और स्वावलंबी बना सकते हैं ।
No comments:
Post a Comment