' इस दुनिया में कोई किसी का गुलाम नहीं है । सभी लोग भगवान की संतान हैं, किसी के प्रति दुर्व्यवहार और दुर्भावना बरतना मनुष्य को शोभा नहीं देता | '
ये विचार थे विलियम वेडर वर्न के जो 1860 में 22 वर्ष की आयु में बम्बई प्रान्त की सिविल सर्विस में एक अधिकारी बनकर इंग्लैंड से आये थे । उनकी शिक्षा-दीक्षा इंग्लैंड में हुई । जब वे अंग्रेजों द्वारा भारतीयो पर किये जाने वाले अत्याचारों के बारे में सुनते तो उदास हो जाते और कहते---- इन्सानियत को ताक में रखकर किसी पर अत्याचार करना उचित नहीं है ।
भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार की बाते सुन-सुनकर विलियम यह सोचने को विवश हो गये कि हिन्दुस्तान का आदमी आखिर किस मिट्टी का बना हुआ है जो इतने अत्याचारों को भी चुपचाप सहन कर लेता है, उफ तक नहीं करता । यहां के जन-जीवन को निकट से देखने की इच्छा उनमे दिनोदिन बलवती होने लगी | भारत के जन-मानस को समझने के लिए उन्होंने इस देश से संबंधित जितनी पुस्तकें मिल सकती थीं ढूंढ-ढूंढकर पढ़ डाली । तत्कालीन भारतीय जन-मानस के प्रति उनका यह द्रष्टिकोण बना---- भारत की जनता मे राष्ट्रीय चेतना का अभाव है अन्यथा वहां की संस्कृति तो इतनी महान है कि नये विश्व का काया-कल्प कर सकती है । भारत के लोग आवश्यकता से अधिक भाग्यवादी और परिस्थितियों से समझौता कर उसे स्वीकार करने वाले हैं । जबकि इस युग में कर्मवाद और संघर्ष में विश्वास करने वाले व्यक्ति और जातियां ही अपने अस्तित्व को सुरक्षित रख सकती हैं ।
भारतीय समाज की इस दशा को बदलने का प्रयास उन्हें अपना कर्तव्य लगा, अत: उन्होंने निश्चय किया कि चाहे जिस प्रकार हो भारत पहुंचकर वहां के लोगों में राष्ट्रीय चेतना का जागरण करना चाहिए | इस उद्देश्य के लिए उन्होंने भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा उत्तीर्ण की और अधिकारी बन भारत आये ।
भारत की सिविल सर्विस में वे सात वर्ष तक रहे | उनके सभ्य, शिष्ट, नम्र और मानवीय व्यवहार ने उन्हें अधीनस्थों का श्रद्धेय बना दिया । लोगों के दुःख-दर्द में सहयोग देते और आस-पास के लोगों में स्वाभिमान पैदा करने का प्रयास करते
1890 में वे बम्बई कांग्रेस अधिवेशन के सभापति चुन गये ,वे कहते थे---' मैं अंग्रेज होने से पहले एक इनसान हूँ और इनसान होने के नाते मुझसे यह सहन नही होता कि किसी के अधिकृत हितों पर स्वार्थ के वशीभूत होकर आघात किया जाये । ' उन्होंने स्वयं को इस देश और यहां की जनता के लिए अर्पित कर दिया । उन्होंने भारत में एक ऐसा वर्ग तैयार किया जिसने आगे चलकर स्वराज्य आन्दोलन का नेतृत्व किया । गोपाल कृष्ण गोखले, महामना मालवीय और लोकमान्य तिलक जैसे अनेकों विभूतियों को ढूंढने और आगे बढ़ाने का अधिकांश श्रेय भाई विलियम वेडर वर्न को ही है । मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए वे जीवन भर संघर्ष करते रहे ।
ये विचार थे विलियम वेडर वर्न के जो 1860 में 22 वर्ष की आयु में बम्बई प्रान्त की सिविल सर्विस में एक अधिकारी बनकर इंग्लैंड से आये थे । उनकी शिक्षा-दीक्षा इंग्लैंड में हुई । जब वे अंग्रेजों द्वारा भारतीयो पर किये जाने वाले अत्याचारों के बारे में सुनते तो उदास हो जाते और कहते---- इन्सानियत को ताक में रखकर किसी पर अत्याचार करना उचित नहीं है ।
भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार की बाते सुन-सुनकर विलियम यह सोचने को विवश हो गये कि हिन्दुस्तान का आदमी आखिर किस मिट्टी का बना हुआ है जो इतने अत्याचारों को भी चुपचाप सहन कर लेता है, उफ तक नहीं करता । यहां के जन-जीवन को निकट से देखने की इच्छा उनमे दिनोदिन बलवती होने लगी | भारत के जन-मानस को समझने के लिए उन्होंने इस देश से संबंधित जितनी पुस्तकें मिल सकती थीं ढूंढ-ढूंढकर पढ़ डाली । तत्कालीन भारतीय जन-मानस के प्रति उनका यह द्रष्टिकोण बना---- भारत की जनता मे राष्ट्रीय चेतना का अभाव है अन्यथा वहां की संस्कृति तो इतनी महान है कि नये विश्व का काया-कल्प कर सकती है । भारत के लोग आवश्यकता से अधिक भाग्यवादी और परिस्थितियों से समझौता कर उसे स्वीकार करने वाले हैं । जबकि इस युग में कर्मवाद और संघर्ष में विश्वास करने वाले व्यक्ति और जातियां ही अपने अस्तित्व को सुरक्षित रख सकती हैं ।
भारतीय समाज की इस दशा को बदलने का प्रयास उन्हें अपना कर्तव्य लगा, अत: उन्होंने निश्चय किया कि चाहे जिस प्रकार हो भारत पहुंचकर वहां के लोगों में राष्ट्रीय चेतना का जागरण करना चाहिए | इस उद्देश्य के लिए उन्होंने भारतीय सिविल सर्विस की परीक्षा उत्तीर्ण की और अधिकारी बन भारत आये ।
भारत की सिविल सर्विस में वे सात वर्ष तक रहे | उनके सभ्य, शिष्ट, नम्र और मानवीय व्यवहार ने उन्हें अधीनस्थों का श्रद्धेय बना दिया । लोगों के दुःख-दर्द में सहयोग देते और आस-पास के लोगों में स्वाभिमान पैदा करने का प्रयास करते
1890 में वे बम्बई कांग्रेस अधिवेशन के सभापति चुन गये ,वे कहते थे---' मैं अंग्रेज होने से पहले एक इनसान हूँ और इनसान होने के नाते मुझसे यह सहन नही होता कि किसी के अधिकृत हितों पर स्वार्थ के वशीभूत होकर आघात किया जाये । ' उन्होंने स्वयं को इस देश और यहां की जनता के लिए अर्पित कर दिया । उन्होंने भारत में एक ऐसा वर्ग तैयार किया जिसने आगे चलकर स्वराज्य आन्दोलन का नेतृत्व किया । गोपाल कृष्ण गोखले, महामना मालवीय और लोकमान्य तिलक जैसे अनेकों विभूतियों को ढूंढने और आगे बढ़ाने का अधिकांश श्रेय भाई विलियम वेडर वर्न को ही है । मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए वे जीवन भर संघर्ष करते रहे ।
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