' मृत्यु तो सुनिश्चित है, किन्तु जो जीवन को इस ढंग से जीते हैं कि मरने के बाद उनके कार्य उन्हें चिरस्मरणीय बना जाते हैं । ' विद्दार्थी जी (1890-1931 ) ऐसे ही व्यक्ति थे ।
उन दिनों ' सरस्वती ' के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्वेदी को एक योग्य सहायक की आवश्यकता थी, वे गणेशजी के विचारों और लेखनी से परिचित हो चुके थे, अत: उन्होंने उनको अनुरोधपूर्वक ' सरस्वती ' में बुला लिया और 30 रूपये मासिक का प्रस्ताव करते हुए कहा कि--- "
' सरस्वती ' के पास साहित्य सेवा के अवसर के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं है । " श्री गणेशशंकर ने विनम्रतापूर्वक कहा कि " केवल 25 रूपये पारिश्रमिक ही उनके लिए पर्याप्त होगा । उन्होंने अपना जीवन पैसे के लिए नहीं, किसी भी माध्यम से देश-सेवा के लिए समर्पित कर देने का निश्चय किया है |
' सरस्वती ' की निष्काम सेवा ने उन्हें पत्रकार जगत में विख्यात कर दिया । बाद में
उन्होंने कानपुर से ' प्रताप ' (साप्ताहिक) को प्रकाशित करना आरंभ किया । उसका उद्देश्य था दीन-दुःखी, अत्याचार पीडितों की आवाज को बुलन्द करना और उनके कष्टों को मिटाने के लिये आन्दोलन करना । उन्होंने आरम्भ से ही ' प्रताप ' में रियासती प्रजा पर होने वाले अन्यायों का विरोध करना आरम्भ कर दिया था ।
अवध के किसान तालुकेदारों के अत्याचार से कराह रहे थे , वे लगान और करों के नाम पर गरीबों की पसीने की कमाई का इस प्रकार अपहरण करते थे कि दिन-रात मेहनत करने पर भी उनको दो वक्त भरपेट रोटी नहीं मिल पाती थी । जब कानपुर के निकटवर्ती रायबरेली के किसान बहुत पीड़ित हुए और उन्होंने तालुकेदार वीरपाल सिंह के विरुद्ध सिर उठाया तो उसने गोली चलवाकर कितनो को ही हताहत कर दिया । विद्दार्थी जी के पास खबर पहुंची तो उन्होंने एक प्रतिनिधि भेजकर जाँच कराई और वीरपाल सिंह की शैतानी का पूरा कच्चा चिटठा ' प्रताप ' में प्रकाशित कर दिया । 'तालुकेदार साहब ' ऐसी बातों को कैसे सहन करते | उन्होंने विद्दार्थी जी को नोटिस दिया कि " या तो माफी मांगो, नहीं तो अदालत में मानहानि का दावा कर दिया जायेगा । "
विद्दार्थी जी ने उत्तर दिया--- " आप खुशी से अदालत की शरण लें | हम वहीँ आपकी करतूतों का भंडाफोड़ करेंगे । माफी मांगने वाले कोई और होते हैं । "
छह महीने तक मुकदमा चला, तीस हजार रुपया उसमे बर्बाद करना पड़ा, तीन मास की सजा भी भोगी, पर किसानो की दुःख गाथा और तालुकेदारों के अन्याय संसार के सम्मुख प्रकट हो गये और उसी समय से जो किसान-आन्दोलन शुरू हुआ तो उसने जमींदारी प्रथा को जड़मूल से उखाड़ कर ही दम लिया ।
कहीं भी अन्याय होते देख विद्दार्थी जी चुप नहीं रहते थे । वे कहते थे----- ' हम तो गरीबों के सेवक हैं, उनको कष्ट पाते देखते हैं तो उसे शासकों के सम्मुख प्रकट करके दूर कराने की चेष्टा करते हैं ।
' प्रताप ' ने अपने प्रथम अंक से ही क्रांतिकारी विचारों को लिखना और जनता को संगठित होने की प्रेरणा देना आरम्भ किया, परिणाम हुआ कि ' प्रताप ' तत्कालीन अंग्रेजी सरकार की आँखों में खटकने लगा---- अनेक सरकारी कर्मचारियों से उन पर दावे कराए गये, पांच बार जेल की सजा दी गई, कितने ही देशी राज्यों में ' प्रताप ' का प्रवेश बंद कर दिया गया । पर इनमे से किसी भी प्रहार से विद्दार्थी जी विचलित नहीं हुए और जिस ' सेवा-धर्म ' को उन्होंने अपनाया था, जीवन के अंतिम क्षणों तक उसका पूर्ण निष्ठा से पालन करते रहे । अपने धर्म, अपने मिशन और अपने कर्तव्य के लिए सब कुछ अर्पण करने की प्रेरणा देकर सदा-सर्वदा के लिए अमर हो गये ।
उन दिनों ' सरस्वती ' के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्वेदी को एक योग्य सहायक की आवश्यकता थी, वे गणेशजी के विचारों और लेखनी से परिचित हो चुके थे, अत: उन्होंने उनको अनुरोधपूर्वक ' सरस्वती ' में बुला लिया और 30 रूपये मासिक का प्रस्ताव करते हुए कहा कि--- "
' सरस्वती ' के पास साहित्य सेवा के अवसर के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं है । " श्री गणेशशंकर ने विनम्रतापूर्वक कहा कि " केवल 25 रूपये पारिश्रमिक ही उनके लिए पर्याप्त होगा । उन्होंने अपना जीवन पैसे के लिए नहीं, किसी भी माध्यम से देश-सेवा के लिए समर्पित कर देने का निश्चय किया है |
' सरस्वती ' की निष्काम सेवा ने उन्हें पत्रकार जगत में विख्यात कर दिया । बाद में
उन्होंने कानपुर से ' प्रताप ' (साप्ताहिक) को प्रकाशित करना आरंभ किया । उसका उद्देश्य था दीन-दुःखी, अत्याचार पीडितों की आवाज को बुलन्द करना और उनके कष्टों को मिटाने के लिये आन्दोलन करना । उन्होंने आरम्भ से ही ' प्रताप ' में रियासती प्रजा पर होने वाले अन्यायों का विरोध करना आरम्भ कर दिया था ।
अवध के किसान तालुकेदारों के अत्याचार से कराह रहे थे , वे लगान और करों के नाम पर गरीबों की पसीने की कमाई का इस प्रकार अपहरण करते थे कि दिन-रात मेहनत करने पर भी उनको दो वक्त भरपेट रोटी नहीं मिल पाती थी । जब कानपुर के निकटवर्ती रायबरेली के किसान बहुत पीड़ित हुए और उन्होंने तालुकेदार वीरपाल सिंह के विरुद्ध सिर उठाया तो उसने गोली चलवाकर कितनो को ही हताहत कर दिया । विद्दार्थी जी के पास खबर पहुंची तो उन्होंने एक प्रतिनिधि भेजकर जाँच कराई और वीरपाल सिंह की शैतानी का पूरा कच्चा चिटठा ' प्रताप ' में प्रकाशित कर दिया । 'तालुकेदार साहब ' ऐसी बातों को कैसे सहन करते | उन्होंने विद्दार्थी जी को नोटिस दिया कि " या तो माफी मांगो, नहीं तो अदालत में मानहानि का दावा कर दिया जायेगा । "
विद्दार्थी जी ने उत्तर दिया--- " आप खुशी से अदालत की शरण लें | हम वहीँ आपकी करतूतों का भंडाफोड़ करेंगे । माफी मांगने वाले कोई और होते हैं । "
छह महीने तक मुकदमा चला, तीस हजार रुपया उसमे बर्बाद करना पड़ा, तीन मास की सजा भी भोगी, पर किसानो की दुःख गाथा और तालुकेदारों के अन्याय संसार के सम्मुख प्रकट हो गये और उसी समय से जो किसान-आन्दोलन शुरू हुआ तो उसने जमींदारी प्रथा को जड़मूल से उखाड़ कर ही दम लिया ।
कहीं भी अन्याय होते देख विद्दार्थी जी चुप नहीं रहते थे । वे कहते थे----- ' हम तो गरीबों के सेवक हैं, उनको कष्ट पाते देखते हैं तो उसे शासकों के सम्मुख प्रकट करके दूर कराने की चेष्टा करते हैं ।
' प्रताप ' ने अपने प्रथम अंक से ही क्रांतिकारी विचारों को लिखना और जनता को संगठित होने की प्रेरणा देना आरम्भ किया, परिणाम हुआ कि ' प्रताप ' तत्कालीन अंग्रेजी सरकार की आँखों में खटकने लगा---- अनेक सरकारी कर्मचारियों से उन पर दावे कराए गये, पांच बार जेल की सजा दी गई, कितने ही देशी राज्यों में ' प्रताप ' का प्रवेश बंद कर दिया गया । पर इनमे से किसी भी प्रहार से विद्दार्थी जी विचलित नहीं हुए और जिस ' सेवा-धर्म ' को उन्होंने अपनाया था, जीवन के अंतिम क्षणों तक उसका पूर्ण निष्ठा से पालन करते रहे । अपने धर्म, अपने मिशन और अपने कर्तव्य के लिए सब कुछ अर्पण करने की प्रेरणा देकर सदा-सर्वदा के लिए अमर हो गये ।
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