आराम को हराम मानने और आलस्य से दूर रहने के कारण श्वास की बीमारी भी उनकी राष्ट्र सेवा में बाधक नहीं बन सकी । उनकी विद्वता, कर्मण्यता और काम, क्रोध, मोह आदि पर विजय पाये हुए व्यक्तित्व को देखते हुए उनके साथी सहयोगी उन्हें ऋषि-कल्प किशोरलाल भाई कहा करते थे । वस्तुतः उन्होंने अपने जीवन को प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों जैसा ही ढाल लिया था |
लम्बे समय से उन्हें श्वास की बीमारी थी । इस बीमारी का कोई स्थायी इलाज नहीं था । उसका एक सामयिक इलाज उन्होंने यह खोज निकाला था कि जब श्वास का दौरा उठता तो वे ऊँकडू बैठ जाते, थोड़ी ही देर में दौरा समाप्त हो जाता । इस बीमारी को लेकर वे कभी चुप नहीं
रहे । बीमारी अपनी जगह स्थायी थी उन्होंने भी अपनी हर साँस का सदुपयोग किया ।
महात्मा गाँधी की मृत्यु के उपरान्त उनके प्रिय पत्र हरिजन के पुन: प्रकाशन हेतु संपादक की तलाश हुई तो इसके लिए योग्य सम्पादक मिले----- श्री किशोरलाल मश्रुवाला । उन्होंने हरिजन का सम्पादन उसी कुशलता व बुद्धिमता से किया कि पाठक उसमे रंचमात्र भी कमी नहीं पा सके ।
वे गांधीवाद के विश्वस्त और सिद्धहस्त व्याख्याता थे ।
गांधीवाद के विद्वान होने के साथ ही उन्होंने गांधीवाद के सिद्धांतों को अपने जीवन मे उतारा भी था उन्होंने गांधीजी द्वारा प्रेरित कई रचनात्मक सँस्थाओं का संचालन किया पर वे अपना निर्वाह व्यय, जो अति अल्प था एक ही संस्था से लिया करते थे, बाकी संस्थाओं का काम वे अवैतनिक सेवक के रूप में किया करते थे । उन्होंने जीवन जीने की कला, अर्थशास्त्र, शिक्षाशास्त्र और गाँधी दर्शन पर बहुत सी पुस्तकें लिखीं, कई लेख लिखे, हरिजन का सम्पादन किया, पर उन्होंने लेखन, संपादन को आय का साधन कभी नहीं बनाया । वे कहा करते थे---- " विचार तो अनमोल होते हैं, उनका मूल्य चुकाना किसी के द्वारा संभव नहीं । बीमारी उन्हें आलसी नहीं बन सकी, विद्वता उन्हें लोभी नहीं बना सकी, पत्रकारिता के क्षेत्र में रहकर भी वे राग-द्वेष से ऊपर उठे रहे और गांधीजी की तरह गृहस्थी होते हुए भी ब्रह्मचारी बने रहे ।
लम्बे समय से उन्हें श्वास की बीमारी थी । इस बीमारी का कोई स्थायी इलाज नहीं था । उसका एक सामयिक इलाज उन्होंने यह खोज निकाला था कि जब श्वास का दौरा उठता तो वे ऊँकडू बैठ जाते, थोड़ी ही देर में दौरा समाप्त हो जाता । इस बीमारी को लेकर वे कभी चुप नहीं
रहे । बीमारी अपनी जगह स्थायी थी उन्होंने भी अपनी हर साँस का सदुपयोग किया ।
महात्मा गाँधी की मृत्यु के उपरान्त उनके प्रिय पत्र हरिजन के पुन: प्रकाशन हेतु संपादक की तलाश हुई तो इसके लिए योग्य सम्पादक मिले----- श्री किशोरलाल मश्रुवाला । उन्होंने हरिजन का सम्पादन उसी कुशलता व बुद्धिमता से किया कि पाठक उसमे रंचमात्र भी कमी नहीं पा सके ।
वे गांधीवाद के विश्वस्त और सिद्धहस्त व्याख्याता थे ।
गांधीवाद के विद्वान होने के साथ ही उन्होंने गांधीवाद के सिद्धांतों को अपने जीवन मे उतारा भी था उन्होंने गांधीजी द्वारा प्रेरित कई रचनात्मक सँस्थाओं का संचालन किया पर वे अपना निर्वाह व्यय, जो अति अल्प था एक ही संस्था से लिया करते थे, बाकी संस्थाओं का काम वे अवैतनिक सेवक के रूप में किया करते थे । उन्होंने जीवन जीने की कला, अर्थशास्त्र, शिक्षाशास्त्र और गाँधी दर्शन पर बहुत सी पुस्तकें लिखीं, कई लेख लिखे, हरिजन का सम्पादन किया, पर उन्होंने लेखन, संपादन को आय का साधन कभी नहीं बनाया । वे कहा करते थे---- " विचार तो अनमोल होते हैं, उनका मूल्य चुकाना किसी के द्वारा संभव नहीं । बीमारी उन्हें आलसी नहीं बन सकी, विद्वता उन्हें लोभी नहीं बना सकी, पत्रकारिता के क्षेत्र में रहकर भी वे राग-द्वेष से ऊपर उठे रहे और गांधीजी की तरह गृहस्थी होते हुए भी ब्रह्मचारी बने रहे ।
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