' संपूर्ण जगत को प्रकाश की आवश्यकता है । यह प्रकाश केवल भारत में ही है, इसलिए ईश्वर ने इस जाति को आज तक सभी प्रकार की विपदाओं से सुरक्षित बचाकर रखा है । '------ स्वामी विवेकानंद
1920-21 का समय था, प्रिंस ऑफ वेल्स दिल्ली आ रहे थे । अंग्रेज सरकार की समूची व्यवस्था उनके स्वागत की तैयारी में जुटी थी । उसकी कोशिश यह थी कि हिन्दू समाज की आपसी फूट का लाभ उठाकर अछूतों की भीड़ इकट्ठी करके इस समारोह को सफल बनाया जाये । यही नहीं हजारों-हजार संख्या में अछूत भाई-बहनों को इस अवसर पर ईसाई बनाने की योजना भी सरकार ने बनाई थी । ऐसे में स्वामी परमानन्द जी महाराज से चुप न बैठे रहा गया , वे संत होने के साथ सुधारक भी थे और हिन्दू समाज की कुरीतियों को समाप्त करने के उद्देश्य से उन्होंने अपने आश्रम में हरिजन पाठशाला भी खोली थी । उन्होंने अपने शिष्य कृष्णानंद से कह कि तुम इस पाठशाला के बच्चों को लेकर दिल्ली जाओ और वहां के समारोह में बच्चों से भजन गवाओ ।
स्वामी परमानन्द जी को इस बात पर लोगों ने भला-बुरा भी कहा, धमकी भी दी । पर कृष्णानंद जी गुरु की आज्ञा मानकर दिल्ली चल दिए ।
सरकार ने इस अवसर पर अछूतों को दिल्ली आने के लिए मुफ्त रेलगाड़ी की व्यवस्था की थी । ये लोग भी इसी से दिल्ली पहुँच गये । प्रिंस ऑफ वेल्स के पधारने पर ज्यों ही समारोह शुरू हुआ, आश्रम के बच्चों ने खंजरी बजाकर स्वामी परमानन्द जी का भजन गाना शुरू किया-----
धरम मत हारो रे, यह जीवन है दिन चार, धरमराज को जाना होगा, सारा हाल सुनाना होगा,
फिर पीछे पछताना होगा, कर लो सोच-विचार । '
एक बूढ़े ने पूछा ये बच्चे कौन हैं ? उसे बताया गया कि ये अछूतों के बच्चे और भगवद भक्ति आश्रम रेवाड़ी में पढ़ते हैं । बूढ़े को आश्चर्य हुआ कि अछूतों के बच्चे इतने साफ-सुथरे ।
गुरु महाराज सारी स्थिति जानते थे, अत: कुछ बच्चों के अभिभावक भी यात्रा मे साथ आये |
बच्चों के बारे में पूछने पर ये अभिभावक खड़े होकर कहने लगे--- हाँ भाई, ये हमारे बच्चे हें । एक बूढा अछूत खड़ा होकर हाथ जोड़कर बोला---- भाइयों ! एक बात मैं कहूँ, जब साधु-महात्मा हमारे बच्चों को इस प्रेम से पढ़ाते हैं, तो अब हमें धरम बदलने की जरुरत नहीं है, हम अपना धरम नहीं छोड़ेंगे | " उस वृद्ध की बात के समर्थन में पूरा आयोजन स्थल गूंज उठा । अंगरेजों का षडयंत्र विफल रहा । स्वामी परमानन्द जी ने कहा ----- " बाहरी शक्तियों की कुटिल चालें तभी सफल हो पाती हैं, जब हम में आपसी फूट होती है और आपसी फूट तभी पनपती है जब हम परस्पर एक दूसरे को प्यार और अपनापन देने में विफल रहते हैं ।
1920-21 का समय था, प्रिंस ऑफ वेल्स दिल्ली आ रहे थे । अंग्रेज सरकार की समूची व्यवस्था उनके स्वागत की तैयारी में जुटी थी । उसकी कोशिश यह थी कि हिन्दू समाज की आपसी फूट का लाभ उठाकर अछूतों की भीड़ इकट्ठी करके इस समारोह को सफल बनाया जाये । यही नहीं हजारों-हजार संख्या में अछूत भाई-बहनों को इस अवसर पर ईसाई बनाने की योजना भी सरकार ने बनाई थी । ऐसे में स्वामी परमानन्द जी महाराज से चुप न बैठे रहा गया , वे संत होने के साथ सुधारक भी थे और हिन्दू समाज की कुरीतियों को समाप्त करने के उद्देश्य से उन्होंने अपने आश्रम में हरिजन पाठशाला भी खोली थी । उन्होंने अपने शिष्य कृष्णानंद से कह कि तुम इस पाठशाला के बच्चों को लेकर दिल्ली जाओ और वहां के समारोह में बच्चों से भजन गवाओ ।
स्वामी परमानन्द जी को इस बात पर लोगों ने भला-बुरा भी कहा, धमकी भी दी । पर कृष्णानंद जी गुरु की आज्ञा मानकर दिल्ली चल दिए ।
सरकार ने इस अवसर पर अछूतों को दिल्ली आने के लिए मुफ्त रेलगाड़ी की व्यवस्था की थी । ये लोग भी इसी से दिल्ली पहुँच गये । प्रिंस ऑफ वेल्स के पधारने पर ज्यों ही समारोह शुरू हुआ, आश्रम के बच्चों ने खंजरी बजाकर स्वामी परमानन्द जी का भजन गाना शुरू किया-----
धरम मत हारो रे, यह जीवन है दिन चार, धरमराज को जाना होगा, सारा हाल सुनाना होगा,
फिर पीछे पछताना होगा, कर लो सोच-विचार । '
एक बूढ़े ने पूछा ये बच्चे कौन हैं ? उसे बताया गया कि ये अछूतों के बच्चे और भगवद भक्ति आश्रम रेवाड़ी में पढ़ते हैं । बूढ़े को आश्चर्य हुआ कि अछूतों के बच्चे इतने साफ-सुथरे ।
गुरु महाराज सारी स्थिति जानते थे, अत: कुछ बच्चों के अभिभावक भी यात्रा मे साथ आये |
बच्चों के बारे में पूछने पर ये अभिभावक खड़े होकर कहने लगे--- हाँ भाई, ये हमारे बच्चे हें । एक बूढा अछूत खड़ा होकर हाथ जोड़कर बोला---- भाइयों ! एक बात मैं कहूँ, जब साधु-महात्मा हमारे बच्चों को इस प्रेम से पढ़ाते हैं, तो अब हमें धरम बदलने की जरुरत नहीं है, हम अपना धरम नहीं छोड़ेंगे | " उस वृद्ध की बात के समर्थन में पूरा आयोजन स्थल गूंज उठा । अंगरेजों का षडयंत्र विफल रहा । स्वामी परमानन्द जी ने कहा ----- " बाहरी शक्तियों की कुटिल चालें तभी सफल हो पाती हैं, जब हम में आपसी फूट होती है और आपसी फूट तभी पनपती है जब हम परस्पर एक दूसरे को प्यार और अपनापन देने में विफल रहते हैं ।
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