अन्याय चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, उसका प्रतिकार करने का साहस न करना अपने मानवीय कर्तव्यों की उपेक्षा करना है ।
' अन्याय तभी तक फलता-फूलता है जब तक उससे संघर्ष, विरोध करने कोई खड़ा नही होता ?
पर जब छोटा सा संगठन भी सम्पूर्ण मनोयोग व तन, मन और धन से इसके विरोध में खड़ा हो जाता है तो अन्याय चल नहीं सकता । '
वैदिक वाड्मय में एक ऋचा आती है ----- हे भगवान ! हमें ' मन्यु ' प्रदान करें । ' मन्यु ' का अर्थ है वह क्रोध जो अनाचार के विरोध में उमगता है, जिसमे लोकमंगल विरोधी अनाचार को निरस्त करने का विवेकपूर्ण संकल्प जुड़ा हो वह मन्यु है । मन्यु में तेजस्विता, ओजस्विता और मनस्विता ये तीनो तत्व मिले हुए हैं । अत: वह क्रोध के समतुल्य दिखने पर भी ईश्वरीय वरदान है । इसकी गणना उच्च आध्यात्मिक उपलब्धियों से की गई है ।
रावण कूटनीतिज्ञ भी था । बोला --- " अंगद ! जिस राम ने तेरे पिता को मारा, तू उन्ही की मदद कर रहा है । मेरे मित्र का पुत्र होकर भी तू मुझसे वैर रखता है । "
अंगद हँसा और बोला ---- " दुष्ट रावण ! अन्यायी से लड़ना और उसे मारना ही सच्चा धर्म है । चाहे वह मेरा पिता हो अथवा आप स्वयं ही क्यों न हों । "
अंगद के ओजस्वी शब्दों को सुनकर रावण हतप्रभ था । उससे कोई उत्तर देते नहीं बना ।
संबंध नहीं , नीति और न्याय का ही वरण करना चाहिए ।
' अन्याय तभी तक फलता-फूलता है जब तक उससे संघर्ष, विरोध करने कोई खड़ा नही होता ?
पर जब छोटा सा संगठन भी सम्पूर्ण मनोयोग व तन, मन और धन से इसके विरोध में खड़ा हो जाता है तो अन्याय चल नहीं सकता । '
वैदिक वाड्मय में एक ऋचा आती है ----- हे भगवान ! हमें ' मन्यु ' प्रदान करें । ' मन्यु ' का अर्थ है वह क्रोध जो अनाचार के विरोध में उमगता है, जिसमे लोकमंगल विरोधी अनाचार को निरस्त करने का विवेकपूर्ण संकल्प जुड़ा हो वह मन्यु है । मन्यु में तेजस्विता, ओजस्विता और मनस्विता ये तीनो तत्व मिले हुए हैं । अत: वह क्रोध के समतुल्य दिखने पर भी ईश्वरीय वरदान है । इसकी गणना उच्च आध्यात्मिक उपलब्धियों से की गई है ।
रावण कूटनीतिज्ञ भी था । बोला --- " अंगद ! जिस राम ने तेरे पिता को मारा, तू उन्ही की मदद कर रहा है । मेरे मित्र का पुत्र होकर भी तू मुझसे वैर रखता है । "
अंगद हँसा और बोला ---- " दुष्ट रावण ! अन्यायी से लड़ना और उसे मारना ही सच्चा धर्म है । चाहे वह मेरा पिता हो अथवा आप स्वयं ही क्यों न हों । "
अंगद के ओजस्वी शब्दों को सुनकर रावण हतप्रभ था । उससे कोई उत्तर देते नहीं बना ।
संबंध नहीं , नीति और न्याय का ही वरण करना चाहिए ।
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