' बलवान और शक्तिशाली व्यक्ति यदि संस्कारवान भी होगा तो अनीति और अन्याय की घटनाएँ सुनकर उसका खून खौल ही उठेगा । 'हरीसिंह नलवा का जन्म 1791 में हुआ था । उनके पिता अमृतसर के निवासी थे और सुक्रयकिया रियासत के सेनापति थे ।
उस समय भारत पर मुगलों का शासन था , विधर्मियों और आततायी शासकों के अत्याचार की कहानियाँ घर - घर सुनी जाती थीं । दस वर्षीय बालक नलवा के बाल - मन में देश को शत्रुओं के पंजे से मुक्त करने की , अन्याय का प्रतिकार करने की भावना जाग्रत हो गई । जब वे सात वर्ष के थे तो पिता की मृत्यु हो गई , उनके मामा वीरता और बहादुरी में क्षेत्र में अनूठे थे । उनके संरक्षण में बालक ने अपने आपको शक्ति संपन्न बनाना शुरू किया जिससे अत्याचार के प्रतिकार का सपना पूरा कर सके ।
उन्होंने अपने शरीर को बलिष्ठ बनाया , तलवार चलाने, घुड़सवारी करने , तीर चलाने तथा युद्ध कला में उसने पूरी निपुणता प्राप्त कर ली । अपनी योग्यता और वीरता के बलबूते तेरह वर्ष की आयु में हरीसिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भर्ती हो गया । बचपन में रक्त में जो उबाल आया था उससे आततायियों से संघर्ष करने की इतनी सामर्थ्य बालक ने पा ली थी कि विदेशी आक्रमणकारी उसके नाम से कांपते थे ।
1819 में नलवा कश्मीर के सूबेदार गवर्नर बने । उसके पूर्व वहां मुहम्मद जब्बार खां का शासन था उसने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किये थे । महाराज की अनुमति से तीस हजार सिख सैनिकों को लेकर वे कश्मीर विजय के लिए चल दिए । सिख सैनिकों की उस समय इतनी धाक जमी हुई थी कि जब्बार खां उनका नाम सुनते ही भाग गया । कश्मीर का सूबेदार बनने के बाद नलवा ने वहां के नागरिकों को इतना स्वस्थ व सुन्दर शासन दिया कि जब वह 1821 में महाराज के बुलाने पर वहां से विदा होने लगे तो कश्मीर के लोग बिलख -विलख कर रोने लगे । हिन्दू - मुस्लिम दोनों ही वर्गों की जो भेदभाव रहित सेवा और व्यवस्था उन्होंने की उसे कश्मीर वासी बाद में भी याद करते रहे ।
उनके शासन में नागरिक सुख की नींद सोते थे । मातृ शक्ति का अपमान करने का साहस कोई नर - पशु नहीं कर पाता था । एक सच्चे क्षत्रिय के रूप में शक्ति का सदुपयोग करके हरीसिंह नलवा ने बलवानो के सामने आदर्श प्रस्तुत किया । नलवा चाहता था व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और शक्ति पर अंकुश रखे , उसे सन्मार्गगामी बनाये , पतन की राह पर न चलने दे ।
यदि कोई कुमार्ग पर चल पड़ा है तो प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी शक्ति - सामर्थ्य बढ़ाकर उसे दंड दे ताकि भविष्य में कोई इस प्रकार का दुस्साहस न करे , समाज में अन्ध व्यवस्था न फैलाये |
मिचनी के नवाब ने कामांध होकर रास्ते में जाती हुई एक डोली को लूट लिया और उसमे बैठी नवविवाहिता को वह अपनी वासना की भेंट चढ़ाना चाहता था कि इसकी सूचना हरीसिंह को मिल गई । उसने नवाब पर आक्रमण करके उसे पकड़ लिया और तोप से उड़ा दिया ।
अपनी शक्ति का सदुपयोग करके वीरवर सदा के लिए अमर हो गया ।
उस समय भारत पर मुगलों का शासन था , विधर्मियों और आततायी शासकों के अत्याचार की कहानियाँ घर - घर सुनी जाती थीं । दस वर्षीय बालक नलवा के बाल - मन में देश को शत्रुओं के पंजे से मुक्त करने की , अन्याय का प्रतिकार करने की भावना जाग्रत हो गई । जब वे सात वर्ष के थे तो पिता की मृत्यु हो गई , उनके मामा वीरता और बहादुरी में क्षेत्र में अनूठे थे । उनके संरक्षण में बालक ने अपने आपको शक्ति संपन्न बनाना शुरू किया जिससे अत्याचार के प्रतिकार का सपना पूरा कर सके ।
उन्होंने अपने शरीर को बलिष्ठ बनाया , तलवार चलाने, घुड़सवारी करने , तीर चलाने तथा युद्ध कला में उसने पूरी निपुणता प्राप्त कर ली । अपनी योग्यता और वीरता के बलबूते तेरह वर्ष की आयु में हरीसिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भर्ती हो गया । बचपन में रक्त में जो उबाल आया था उससे आततायियों से संघर्ष करने की इतनी सामर्थ्य बालक ने पा ली थी कि विदेशी आक्रमणकारी उसके नाम से कांपते थे ।
1819 में नलवा कश्मीर के सूबेदार गवर्नर बने । उसके पूर्व वहां मुहम्मद जब्बार खां का शासन था उसने हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किये थे । महाराज की अनुमति से तीस हजार सिख सैनिकों को लेकर वे कश्मीर विजय के लिए चल दिए । सिख सैनिकों की उस समय इतनी धाक जमी हुई थी कि जब्बार खां उनका नाम सुनते ही भाग गया । कश्मीर का सूबेदार बनने के बाद नलवा ने वहां के नागरिकों को इतना स्वस्थ व सुन्दर शासन दिया कि जब वह 1821 में महाराज के बुलाने पर वहां से विदा होने लगे तो कश्मीर के लोग बिलख -विलख कर रोने लगे । हिन्दू - मुस्लिम दोनों ही वर्गों की जो भेदभाव रहित सेवा और व्यवस्था उन्होंने की उसे कश्मीर वासी बाद में भी याद करते रहे ।
उनके शासन में नागरिक सुख की नींद सोते थे । मातृ शक्ति का अपमान करने का साहस कोई नर - पशु नहीं कर पाता था । एक सच्चे क्षत्रिय के रूप में शक्ति का सदुपयोग करके हरीसिंह नलवा ने बलवानो के सामने आदर्श प्रस्तुत किया । नलवा चाहता था व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और शक्ति पर अंकुश रखे , उसे सन्मार्गगामी बनाये , पतन की राह पर न चलने दे ।
यदि कोई कुमार्ग पर चल पड़ा है तो प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी शक्ति - सामर्थ्य बढ़ाकर उसे दंड दे ताकि भविष्य में कोई इस प्रकार का दुस्साहस न करे , समाज में अन्ध व्यवस्था न फैलाये |
मिचनी के नवाब ने कामांध होकर रास्ते में जाती हुई एक डोली को लूट लिया और उसमे बैठी नवविवाहिता को वह अपनी वासना की भेंट चढ़ाना चाहता था कि इसकी सूचना हरीसिंह को मिल गई । उसने नवाब पर आक्रमण करके उसे पकड़ लिया और तोप से उड़ा दिया ।
अपनी शक्ति का सदुपयोग करके वीरवर सदा के लिए अमर हो गया ।
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