विवेक के प्रति आस्था और निज के पुरुषार्थ से ख्याति तथा सम्मान को प्राप्त करने वाले इस दार्शनिक महापुरुष को अपने जीवन काल में निरंतर संघर्ष झेलना पड़ा । उनका जीवन उनके सिद्धांतों की प्रयोगशाला बन गया और उस प्रयोगशाला में उन्होंने सिद्ध कर दिखाया कि संघर्ष , पुरुषार्थ और तप - त्याग के बिना इस जगत में कोई भी स्थायी उपलब्धि अर्जित नहीं की जा सकती ।
शोपेन हावर का कहना था कि वस्तु जगत का निर्माण विचारों के साथ - साथ संघर्ष पर भी निर्भर करता है । मस्तिष्क को उन्नत बनाने और नया सृजन करने के लिए असफलताएं और संघर्ष नितांत आवश्यक हैं । उनके अभाव में आदमी अस्थिर ही रहता है । इसलिए कुछ भी बनने के लिए आवश्यक है कष्ट उठाना और पीड़ाएँ झेलना l
विलास के स्थान पर संयम की , अधिकार के स्थान पर कर्तव्य की , प्रवृति के स्थान पर निवृति की शिक्षा का प्रतीक था शोपेन हावर का चिन्तन और जीवन । जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके हाथ में लेखनी और सिरहाने पुस्तकों का बड़ा सा ढेर था । उन्होंने भारतीय उपनिषदों का गहरा अध्ययन किया और उसके सार - तत्व को इस प्रकार निरुपित किया कि समाज का प्रत्येक वर्ग अपने कार्य -व्यवहार की समीक्षा कर उसमे आवश्यक सुधार कर सके । अपने जीवन काल में तो उन्हें इतना सम्मान नहीं मिला परन्तु आगे चलकर उनकी ख्याति देश - काल की सीमाओं को लांघकर विश्वव्यापी और चिरन्तन हो गई ।
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