गाईआल्द्रेड एक निर्भीक पत्रकार थे । वे ब्रिटिश उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को विश्व के लिए कलंक समझते थे । इस कलंक को मिटाने के लिए अपनी लेखनी और स्याही का प्रयोग कर उन्होंने पत्रकारिता के इतिहास में नये पृष्ठ जोड़े । उन्होंने आजीवन औचित्य और न्याय का समर्थन किया एवं भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में पाश्चात्य जनमत को जगाया l
घटना 1910 की है , उस समय इंग्लैंड में इण्डिया हाउस देशभक्तों की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था । इंग्लैंड में रहते हुए वीर सावरकर ने ' भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास ' लिखा था जिसके प्रकाशन पर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया था । इसी तरह श्याम जी कृष्ण वर्मा भी उस समय ' इण्डियन-सोशियोलाजिस्ट ' नामक एक साप्ताहिक पत्र निकालते थे, ब्रिटिश सरकार ने उसके प्रकाशन पर भी रोक लगा दी । इन परिस्थितियों में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समर्थक पत्रकार गाईआल्द्रेड ने अपने प्रेस में प्रतिबंधित ' इण्डियन सोशियो लाजिस्ट ' प्रकाशित किया जिसमे वर्मा जी के ओजस्वी विचार थे , साथ ही गाईआल्द्रेड ने अपनी ओर से एक लेख लिखकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन किया , इससे सारे ब्रिटेन में तहलका मच गया ।
अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला । वादी पक्ष की सारी दलीलें सुनने के बाद उनसे कहा गया --- " तुम अपनी सफाई में कुछ कहना चाहते हो । "
गाईआल्द्रेड ने कहा ---- " इतिहास के सत्यों को उजागर करना तथा न्याय का समर्थन करना अपराध है तो मैं मानता हूँ कि मैं दोषी हूँ । " उन्होंने कहा --- " 1857 में भारत का विद्रोह गदर नहीं स्वाधीनता के लिए संघर्ष था और वहां इस समय चल रहा आन्दोलन सर्वथा न्यायोचित है और हर एक बुद्धिजीवी को भारतीय जनता के लिए न्यायिक स्वतंत्रता के मार्ग का समर्थन करना चाहिए । "
अदालत और सरकार ने उन्हें दोषी मानकर दो वर्ष के सख्त कारावास की सजा सुना दी । जब वे जेल से मुक्त हुए तो पुन: भारत की स्वतंत्रता का प्रचार करने लगे । उन्होंने अपने अख़बार का सावरकर विशेषांक निकाला और वीर सावरकर लिखित पुस्तक ' भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास' अपने समाचार पत्र ' बर्ड ' में छापा । दण्ड की परवाह न करते हुए उन्होंने सारा जीवन सत्य और न्याय का समर्थन किया ।
गाईआल्द्रेड ने कहा ---- " इतिहास के सत्यों को उजागर करना तथा न्याय का समर्थन करना अपराध है तो मैं मानता हूँ कि मैं दोषी हूँ । " उन्होंने कहा --- " 1857 में भारत का विद्रोह गदर नहीं स्वाधीनता के लिए संघर्ष था और वहां इस समय चल रहा आन्दोलन सर्वथा न्यायोचित है और हर एक बुद्धिजीवी को भारतीय जनता के लिए न्यायिक स्वतंत्रता के मार्ग का समर्थन करना चाहिए । "
अदालत और सरकार ने उन्हें दोषी मानकर दो वर्ष के सख्त कारावास की सजा सुना दी । जब वे जेल से मुक्त हुए तो पुन: भारत की स्वतंत्रता का प्रचार करने लगे । उन्होंने अपने अख़बार का सावरकर विशेषांक निकाला और वीर सावरकर लिखित पुस्तक ' भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास' अपने समाचार पत्र ' बर्ड ' में छापा । दण्ड की परवाह न करते हुए उन्होंने सारा जीवन सत्य और न्याय का समर्थन किया ।
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