' मार्क्स ने अपनी समस्त योग्यता और शक्ति को मानव जाति के हितार्थ लगा दिया । वह स्वयं जन्म भर गरीबी और अभावग्रस्त दशा में रहा , पर उसने करोड़ों दीन-हीन लोगों के लिए उद्धार का रास्ता खोल दिया । '
वास्तव में ऐसे ही परमार्थ में जीवन अर्पण करने वाले ऋषि कहलाने के अधिकारी होते हैं ।
कार्ल मार्क्स लन्दन में निर्वासित जीवन जी रहे थे । यहीं पर रहकर उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ
' दास कैपिटल ' की रचना की । लन्दन प्रवास के दौरान मार्क्स को घोर आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा , गरीबी और भूख के कारण उनके दो बच्चों की मृत्यु हो गई । रोटी के लिए बिस्तर भी बेचने पड़े किन्तु श्रमिकों के उद्धार का संकल्प उन्होंने उठाया था , उसे भूखों रहकर आजीवन निभाया ।
उन्ही दिनों जर्मनी में बिस्मार्क का प्रभुत्व था , पूंजीवादी राष्ट्रों में जर्मनी अग्रणी था । बिस्मार्क को डर था कि यदि मार्क्स के विचार समाज में फैल गये तो मजदूरों को काबू में रख पाना संभव न होगा ।
बिस्मार्क को एक उक्ति सूझी --- क्यों न मार्क्स को प्रलोभन देकर खरीद लिया जाये और उसके बढ़ते प्रभाव को समाप्त कर दिया जाये । मार्क्स के पुराने साथी बूचर को लालच देकर अपने पक्ष में कर लिया । उसके हाथों गुप्त पत्र भिजवाया । जिसमे कार्ल मार्क्स को सरकारी समाचार पत्र का सम्पादक बनने की बात कही थी तथा सुरक्षा का पूरा आश्वासन भी दिया गया था । पत्र के अंत में कहा गया था कि सरकार के समर्थन से राष्ट्र सेवा और अच्छी तरह हो सकती है ।
किन्तु मार्क्स खरीदे नहीं जा सके । बिस्मार्क अपने कुटिल इरादों में असफल रहा । मार्क्स श्रेष्ठ सिद्धांत और पवित्र लक्ष्य तथा जन - कल्याण की भावना लेकर कार्य के प्रति समर्पित थे । इसलिए अभाव भरे जीवन से भी उन्हें कोई शिकायत नहीं थी ।
कार्ल मार्क्स न झुके न बिगरे । यह प्रलोभनों पर आदर्शों की महान विजय थी , जो मार्क्स को सदा के लिए महान बना गई ।
वास्तव में ऐसे ही परमार्थ में जीवन अर्पण करने वाले ऋषि कहलाने के अधिकारी होते हैं ।
कार्ल मार्क्स लन्दन में निर्वासित जीवन जी रहे थे । यहीं पर रहकर उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ
' दास कैपिटल ' की रचना की । लन्दन प्रवास के दौरान मार्क्स को घोर आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा , गरीबी और भूख के कारण उनके दो बच्चों की मृत्यु हो गई । रोटी के लिए बिस्तर भी बेचने पड़े किन्तु श्रमिकों के उद्धार का संकल्प उन्होंने उठाया था , उसे भूखों रहकर आजीवन निभाया ।
उन्ही दिनों जर्मनी में बिस्मार्क का प्रभुत्व था , पूंजीवादी राष्ट्रों में जर्मनी अग्रणी था । बिस्मार्क को डर था कि यदि मार्क्स के विचार समाज में फैल गये तो मजदूरों को काबू में रख पाना संभव न होगा ।
बिस्मार्क को एक उक्ति सूझी --- क्यों न मार्क्स को प्रलोभन देकर खरीद लिया जाये और उसके बढ़ते प्रभाव को समाप्त कर दिया जाये । मार्क्स के पुराने साथी बूचर को लालच देकर अपने पक्ष में कर लिया । उसके हाथों गुप्त पत्र भिजवाया । जिसमे कार्ल मार्क्स को सरकारी समाचार पत्र का सम्पादक बनने की बात कही थी तथा सुरक्षा का पूरा आश्वासन भी दिया गया था । पत्र के अंत में कहा गया था कि सरकार के समर्थन से राष्ट्र सेवा और अच्छी तरह हो सकती है ।
किन्तु मार्क्स खरीदे नहीं जा सके । बिस्मार्क अपने कुटिल इरादों में असफल रहा । मार्क्स श्रेष्ठ सिद्धांत और पवित्र लक्ष्य तथा जन - कल्याण की भावना लेकर कार्य के प्रति समर्पित थे । इसलिए अभाव भरे जीवन से भी उन्हें कोई शिकायत नहीं थी ।
कार्ल मार्क्स न झुके न बिगरे । यह प्रलोभनों पर आदर्शों की महान विजय थी , जो मार्क्स को सदा के लिए महान बना गई ।
No comments:
Post a Comment