अपने जीवन के अनुभव से गुरु गोविन्दसिंह जी ने लोगों को शिक्षा दी ----- ' हर सज्जन व्यक्ति को यह नियम बना लेना चाहिए कि शत्रु पक्ष को , निराश्रय की स्थिति में सहायता भी करनी हो तो भी उसे अपने निकट न रखना चाहिए और सदा उससे सावधान रहना चाहिए क्योंकि कभी - कभी असावधान परोपकार भी अनर्थ का कारण बन सकता है । '
सिक्खों के दसवें गुरु गोविन्दसिंह जी उन दिनों गोदावरी के तट पर नगीना नाम का एक घाट बनवा रहे थे । दिनभर उस काम में व्यस्त रहकर वे सांयकाल प्रार्थना कराते और लोगों को संगठन तथा बलिदान का उपदेश दिया करते । उन दिनों उनके पास अनेक मुसलमान शिष्य भी रहते थे किन्तु उन मुसलमान भक्तों में एक शत्रु भी छिपा हुआ था । उसका नाम था-- अताउल्ला खां ।
उसका पिता एक युद्ध में गुरूजी के हाथ से मारा गया था । उसके अनाथ पुत्र को गुरु जी ने आश्रम में रखकर पाल लिया था किन्तु उनकी यही दया और शत्रु के पुत्र के साथ की गई मानवता उनके अंत का कारण बन गई ।
दुष्ट अताउल्ला खां हर समय इस घात में रहता था कि कब गुरूजी को अकेले असावधान पाये और मार डाले । एक दिन उसने पलंग पर सोते हुए गुरूजी की काँख में छुरा घोंप दिया । गुरूजी तत्काल सजग होकर उठ बैठे और वही कटार निकाल कर भागते हुए विश्वास घाती को फेंक कर मारी । वह कटार उसकी पीठ में धंस गई । अताउल्ला खां तुरन्त गिरकर ढेर हो गया ।
सांयकाल उन्होंने प्रार्थना सभा में इसी घटना से लोगों को शिक्षा दी कि शत्रु से हमेशा सावधान रहें
उसका कभी विश्वास न करें ।
गुरु के घाव पर टाँके लगा दिये गये किन्तु बाद में भारी कमान को बलपूर्वक उठाने की प्रक्रिया में उनके जख्म के टाँके टूट गये और रक्त की धारा बह चली , रक्त - प्रवाह रुका नहीं और उसी में सिक्खों के दसवें गुरु का स्वर्गवास हो गया ।
सिक्खों के दसवें गुरु गोविन्दसिंह जी उन दिनों गोदावरी के तट पर नगीना नाम का एक घाट बनवा रहे थे । दिनभर उस काम में व्यस्त रहकर वे सांयकाल प्रार्थना कराते और लोगों को संगठन तथा बलिदान का उपदेश दिया करते । उन दिनों उनके पास अनेक मुसलमान शिष्य भी रहते थे किन्तु उन मुसलमान भक्तों में एक शत्रु भी छिपा हुआ था । उसका नाम था-- अताउल्ला खां ।
उसका पिता एक युद्ध में गुरूजी के हाथ से मारा गया था । उसके अनाथ पुत्र को गुरु जी ने आश्रम में रखकर पाल लिया था किन्तु उनकी यही दया और शत्रु के पुत्र के साथ की गई मानवता उनके अंत का कारण बन गई ।
दुष्ट अताउल्ला खां हर समय इस घात में रहता था कि कब गुरूजी को अकेले असावधान पाये और मार डाले । एक दिन उसने पलंग पर सोते हुए गुरूजी की काँख में छुरा घोंप दिया । गुरूजी तत्काल सजग होकर उठ बैठे और वही कटार निकाल कर भागते हुए विश्वास घाती को फेंक कर मारी । वह कटार उसकी पीठ में धंस गई । अताउल्ला खां तुरन्त गिरकर ढेर हो गया ।
सांयकाल उन्होंने प्रार्थना सभा में इसी घटना से लोगों को शिक्षा दी कि शत्रु से हमेशा सावधान रहें
उसका कभी विश्वास न करें ।
गुरु के घाव पर टाँके लगा दिये गये किन्तु बाद में भारी कमान को बलपूर्वक उठाने की प्रक्रिया में उनके जख्म के टाँके टूट गये और रक्त की धारा बह चली , रक्त - प्रवाह रुका नहीं और उसी में सिक्खों के दसवें गुरु का स्वर्गवास हो गया ।
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