' जीवन साधना की सफलता तो उसे ही मिलती है जो निष्काम , नि:स्वार्थ भाव से और यश - कामना से अत्यंत दूर रहकर केवल ऊँचा लक्ष्य देखता है , ऊँचा लक्ष्य सोचता है और ऊँचे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना जीवन समर्पित करता है । '
अमर शहीद सरदार भगतसिंह के चाचा थे -- सरदार अजीतसिंह । उनके ह्रदय में देश - प्रेम की ज्वाला उमड़ी , जो किसी के रोके न रुकी । एक बार एक मित्र ने सरदार अजीतसिंह से कहा ----- " सरदार ! अंग्रेजी हुकूमत से पेश पाना बड़ा कठिन है । क्यों अपने सुख , चैन और जिंदगी को दांव पर लगाते हो ? " सरदार ने तुरन्त उत्तर दिया ----- " भाई जी ! मर्दाने देश और जाति के उद्धार के लिए मर - मिटना जानते हैं । हम देश और जाति के उद्धार के लिए मर मिटेंगे , सफलता मिलेगी या नहीं यह मेरा परमात्मा जाने । "
उन्होंने अनुभव किया कि केवल जोश से काम नहीं चलेगा , हमें होश के साथ काम करना पड़ेगा ताकि वर्तमान स्वाधीनता आंदोलन अपनी मंजिल की ओर निरंतर गतिमान रहे । लक्ष्य प्राप्ति के लिए नियोजित व्यवस्था बनाने का अजीतसिंह का सिद्धांत प्रत्येक व्यक्ति , प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए बड़ी शिक्षा है ---- ' जो लोग स्थिति का अनुमान लगा कर उचित जवाबी शक्ति लगाते हैं , वे ही जीतते हैं । त्याग और बलिदान को व्यर्थ न जाने देना वस्तुतः बड़ी समझदारी की बात है । '
अजीतसिंह ने यही किया , इसके पूर्व कि वे अंग्रेज सरकार द्वारा पकड़े जाएँ , अपने दो साथियों के साथ वे ईरान चले गये । ईरान से तुर्की रिर आस्ट्रिया , जर्मनी, ब्राजील , अमेरिका , इटली गये --- वे जहाँ भी गये उनका एक ही उद्देश्य रहा ---- शक्ति संगठित करना और विदेशी समर्थन लेकर अंग्रेजों को भारत - भूमि से हटने के लिए मजबूर करना । उन्होंने यह निश्चय किया था कि मातृभूमि पर तभी पैर रखूँगा जब वह अंग्रेजों की आधीनता से मुक्त हो जाएगी । उन्होंने हर बार यही कहा ---- " बड़े वरदान बड़ी तपस्या से मिलते हैं । त्याग और बलिदान देते हुए जिनके चेहरों पर शिकन नही आती वे एक दिन जरुर सफलता के द्वार तक पहुँचते हैं । "
4 0 वर्षों तक विदेशों में भारतीय स्वतंत्रता की अलख जगाने वाला योगी पुन: देश की पवित्र भूमि के दर्शन कर सका । 15 अगस्त के दिन जब स्वतंत्रता का सूर्य उदय हो रहा था तो देश प्रेम के परवाने अजीतसिंह ने इहलीला समाप्त की । मरते समय उन्होंने दोनों हाथ जोड़े और कहा --- " हे परमात्मा ! तुझे लाख - लाख धन्यवाद कि तूने मेरी साधना को सिद्धि दे दी । " यह कहकर उन्होंने अपनी आँखें मूंद लीं ।
सरदार अजीतसिंह चले गये पर उनकी निष्ठा आज भी जीवित है ।
अमर शहीद सरदार भगतसिंह के चाचा थे -- सरदार अजीतसिंह । उनके ह्रदय में देश - प्रेम की ज्वाला उमड़ी , जो किसी के रोके न रुकी । एक बार एक मित्र ने सरदार अजीतसिंह से कहा ----- " सरदार ! अंग्रेजी हुकूमत से पेश पाना बड़ा कठिन है । क्यों अपने सुख , चैन और जिंदगी को दांव पर लगाते हो ? " सरदार ने तुरन्त उत्तर दिया ----- " भाई जी ! मर्दाने देश और जाति के उद्धार के लिए मर - मिटना जानते हैं । हम देश और जाति के उद्धार के लिए मर मिटेंगे , सफलता मिलेगी या नहीं यह मेरा परमात्मा जाने । "
उन्होंने अनुभव किया कि केवल जोश से काम नहीं चलेगा , हमें होश के साथ काम करना पड़ेगा ताकि वर्तमान स्वाधीनता आंदोलन अपनी मंजिल की ओर निरंतर गतिमान रहे । लक्ष्य प्राप्ति के लिए नियोजित व्यवस्था बनाने का अजीतसिंह का सिद्धांत प्रत्येक व्यक्ति , प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए बड़ी शिक्षा है ---- ' जो लोग स्थिति का अनुमान लगा कर उचित जवाबी शक्ति लगाते हैं , वे ही जीतते हैं । त्याग और बलिदान को व्यर्थ न जाने देना वस्तुतः बड़ी समझदारी की बात है । '
अजीतसिंह ने यही किया , इसके पूर्व कि वे अंग्रेज सरकार द्वारा पकड़े जाएँ , अपने दो साथियों के साथ वे ईरान चले गये । ईरान से तुर्की रिर आस्ट्रिया , जर्मनी, ब्राजील , अमेरिका , इटली गये --- वे जहाँ भी गये उनका एक ही उद्देश्य रहा ---- शक्ति संगठित करना और विदेशी समर्थन लेकर अंग्रेजों को भारत - भूमि से हटने के लिए मजबूर करना । उन्होंने यह निश्चय किया था कि मातृभूमि पर तभी पैर रखूँगा जब वह अंग्रेजों की आधीनता से मुक्त हो जाएगी । उन्होंने हर बार यही कहा ---- " बड़े वरदान बड़ी तपस्या से मिलते हैं । त्याग और बलिदान देते हुए जिनके चेहरों पर शिकन नही आती वे एक दिन जरुर सफलता के द्वार तक पहुँचते हैं । "
4 0 वर्षों तक विदेशों में भारतीय स्वतंत्रता की अलख जगाने वाला योगी पुन: देश की पवित्र भूमि के दर्शन कर सका । 15 अगस्त के दिन जब स्वतंत्रता का सूर्य उदय हो रहा था तो देश प्रेम के परवाने अजीतसिंह ने इहलीला समाप्त की । मरते समय उन्होंने दोनों हाथ जोड़े और कहा --- " हे परमात्मा ! तुझे लाख - लाख धन्यवाद कि तूने मेरी साधना को सिद्धि दे दी । " यह कहकर उन्होंने अपनी आँखें मूंद लीं ।
सरदार अजीतसिंह चले गये पर उनकी निष्ठा आज भी जीवित है ।
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