गुर्जर प्रदेश में जन्मे आचार्य हेमचन्द्र ( जन्म 1145 ) दर्शन , धर्म , संस्कृति , साहित्य , कला , राजनीति और लोक नीति के प्रकाण्ड पंडित थे , उन्हें जन - जन ने ' गुर्जर - सर्वज्ञ ' की उपाधि से विभूषित किया था । उनके अहिंसा , करुणा के उपदेशों से प्रभावित होकर गुर्जराधिपति सम्राट कुमारपाल ने उन्हें अपना गुरु बना लिया ।
आचार्य हेमचन्द्र कुछ समय के प्रवास के बाद राजधानी पाटन लौट रहे थे । वे पैदल ही यात्रा करते थे , मार्ग में कहीं रात्रि विश्राम करते थे । एक रात्रि वे एक गाँव में एक निर्धन विधवा के अतिथि बने । उसके पास जो कुछ भी मोटा अन्न था उसने वह प्रेम से उन्हें खिलाया । प्रात: जब वे चलने लगे तो उस मुंहबोली बहिन ने अपने हाथ से कटे सूत की चादर उन्हें भेंट की । आचार्य ' ना ' करते रहे किन्तु बहिन आयु में उनसे बड़ी थी अत: वे उपहार ठुकरा न सके और प्रसन्नता पूर्वक मोटे सूत की चादर ओढ़ कर पाटन चल पड़े ।
सम्राट कुमारपाल को उनके आने की खबर मिली तो अपने शान - वैभव के साथ वे गुरुदेव का स्वागत करने नगर के बाहर आ गये । प्रथम उन्होंने गुरुदेव का चरण - स्पर्श किया , आशीर्वाद लिया । किन्तु उन्हें गुरुदेव के कन्धे पर मोटे गाढ़े की चादर किंचित मात्र न भायी ।
सम्राट ने निवेदन किया --- " आचार्य प्रवर ! यह क्या ? सम्राट कुमारपाल के गुरुदेव के कन्धों पर यह गाढ़े का बेढंगा चादर बिलकुल शोभा नहीं देता , इसे बदल लीजिये । "
आचार्य समझ गये कि सम्राट का अहम् करवटें ले रहा है । उन्होंने कहा ____ " यह शरीर तो अस्थि , चर्म और मांस , मज्जा का ढेर है । इस चादर को ओढ़ने से ऐसा क्या अपमान हो गया इसका । "
सम्राट ने कहा --- " गुरुदेव आप तो दैहिक सुख , शोभा से निर्लिप्त हैं पर मुझे तो लज्जा आती है कि मेरे सम्राट होते हुए मेरे गुरुदेव के कन्धों पर बहुमूल्य कौशेय उत्तरीय न होकर गाढे की चादर हो "
सम्राट का यह कहना था कि आचार्य हेमचन्द्र अपनी ओजपूर्ण वाणी में बोल उठे ------ " इस चादर को मैंने ओढ़ रखा है इस बात को लेकर तुम्हे शर्म आ सकती है पर कई गरीबों का तो यह व्यवसाय ही है । कई असहाय विधवाओं और वृद्धाओं द्वारा दिन भर सूत कात - कात कर बनायीं गई ये चादरें ही उनका पालन - पोषण करती हैं । उन्हें पहनने में मुझे लज्जा नहीं गर्व की अनुभूति होती है । तुम्हारे जैसे धर्मपरायण सम्राट के राज्य में भी ऐसी कितनी ही बहिने हैं जिन्हें दिन भर श्रम करने पर भी भर - पेट भोजन नहीं मिलता । ऐसी ही एक बहिन की दी हुई यह मूल्यवान भेंट मेरे मन को जो सादगी , निर्मलता और शोभा प्रदान करती है उसे मैं जानता हूँ । इस चादर में जो स्नेह , प्रेम , श्रम और श्रद्धा के सूक्ष्म धागे बुने हुए हैं उनकी श्री , शोभा के आगे तुम्हारे हजारों कौशेय परिधान वारे जा सकते हैं । "
आचार्य के ये मार्मिक वचन सुनकर सम्राट का सिर लज्जा से नत हो गया , उनका अहम् विगलित हो गया । प्रजा की सम्पति का सदुपयोग किस प्रकार करना चाहिए यह उनकी समझ में आ गया । सम्राट ने तत्काल घोषणा की ----- " राजकोष से प्रतिवर्ष करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ ऐसे असहाय स्त्री - पुरुषों की सहायता में व्यय किये जाएँ जिनके पास आजीविका के समुचित साधन नहीं हैं । "
आचार्य हेमचन्द्र की यह कठोरता भी समाज का बहुत बड़ा हित कर गई । अपने शिष्य के सम्राट होने का अहम् विदीर्ण करके उसके स्थान पर उन्होंने करुणा व कर्तव्यपालन की सरिता बहायी थी जिसमे स्नान कर कितने ही दीन - दुःखियों की कष्ट कालिमा धुल गई l
आचार्य हेमचन्द्र कुछ समय के प्रवास के बाद राजधानी पाटन लौट रहे थे । वे पैदल ही यात्रा करते थे , मार्ग में कहीं रात्रि विश्राम करते थे । एक रात्रि वे एक गाँव में एक निर्धन विधवा के अतिथि बने । उसके पास जो कुछ भी मोटा अन्न था उसने वह प्रेम से उन्हें खिलाया । प्रात: जब वे चलने लगे तो उस मुंहबोली बहिन ने अपने हाथ से कटे सूत की चादर उन्हें भेंट की । आचार्य ' ना ' करते रहे किन्तु बहिन आयु में उनसे बड़ी थी अत: वे उपहार ठुकरा न सके और प्रसन्नता पूर्वक मोटे सूत की चादर ओढ़ कर पाटन चल पड़े ।
सम्राट कुमारपाल को उनके आने की खबर मिली तो अपने शान - वैभव के साथ वे गुरुदेव का स्वागत करने नगर के बाहर आ गये । प्रथम उन्होंने गुरुदेव का चरण - स्पर्श किया , आशीर्वाद लिया । किन्तु उन्हें गुरुदेव के कन्धे पर मोटे गाढ़े की चादर किंचित मात्र न भायी ।
सम्राट ने निवेदन किया --- " आचार्य प्रवर ! यह क्या ? सम्राट कुमारपाल के गुरुदेव के कन्धों पर यह गाढ़े का बेढंगा चादर बिलकुल शोभा नहीं देता , इसे बदल लीजिये । "
आचार्य समझ गये कि सम्राट का अहम् करवटें ले रहा है । उन्होंने कहा ____ " यह शरीर तो अस्थि , चर्म और मांस , मज्जा का ढेर है । इस चादर को ओढ़ने से ऐसा क्या अपमान हो गया इसका । "
सम्राट ने कहा --- " गुरुदेव आप तो दैहिक सुख , शोभा से निर्लिप्त हैं पर मुझे तो लज्जा आती है कि मेरे सम्राट होते हुए मेरे गुरुदेव के कन्धों पर बहुमूल्य कौशेय उत्तरीय न होकर गाढे की चादर हो "
सम्राट का यह कहना था कि आचार्य हेमचन्द्र अपनी ओजपूर्ण वाणी में बोल उठे ------ " इस चादर को मैंने ओढ़ रखा है इस बात को लेकर तुम्हे शर्म आ सकती है पर कई गरीबों का तो यह व्यवसाय ही है । कई असहाय विधवाओं और वृद्धाओं द्वारा दिन भर सूत कात - कात कर बनायीं गई ये चादरें ही उनका पालन - पोषण करती हैं । उन्हें पहनने में मुझे लज्जा नहीं गर्व की अनुभूति होती है । तुम्हारे जैसे धर्मपरायण सम्राट के राज्य में भी ऐसी कितनी ही बहिने हैं जिन्हें दिन भर श्रम करने पर भी भर - पेट भोजन नहीं मिलता । ऐसी ही एक बहिन की दी हुई यह मूल्यवान भेंट मेरे मन को जो सादगी , निर्मलता और शोभा प्रदान करती है उसे मैं जानता हूँ । इस चादर में जो स्नेह , प्रेम , श्रम और श्रद्धा के सूक्ष्म धागे बुने हुए हैं उनकी श्री , शोभा के आगे तुम्हारे हजारों कौशेय परिधान वारे जा सकते हैं । "
आचार्य के ये मार्मिक वचन सुनकर सम्राट का सिर लज्जा से नत हो गया , उनका अहम् विगलित हो गया । प्रजा की सम्पति का सदुपयोग किस प्रकार करना चाहिए यह उनकी समझ में आ गया । सम्राट ने तत्काल घोषणा की ----- " राजकोष से प्रतिवर्ष करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ ऐसे असहाय स्त्री - पुरुषों की सहायता में व्यय किये जाएँ जिनके पास आजीविका के समुचित साधन नहीं हैं । "
आचार्य हेमचन्द्र की यह कठोरता भी समाज का बहुत बड़ा हित कर गई । अपने शिष्य के सम्राट होने का अहम् विदीर्ण करके उसके स्थान पर उन्होंने करुणा व कर्तव्यपालन की सरिता बहायी थी जिसमे स्नान कर कितने ही दीन - दुःखियों की कष्ट कालिमा धुल गई l
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