उच्च कोटि का दान ' ज्ञान दान ' है । हमारे अधिकांश कष्टों का एक बड़ा कारण अज्ञान और अविद्दा ही होता है । यदि कोई सदुपदेश , सत्संग , सद्ग्रंथों द्वारा हमारे अज्ञान को दूर कर देता है तो यह एक ऐसा दान है जिसकी तुलना अन्य किसी दान से नहीं की जा सकती । क्योंकि अन्न , वस्त्र , धन आदि से हमारी कोई सामयिक आवश्यकता ही पूरी हो सकती है और कुछ समय बाद फिर वही अभाव उपस्थित हो जाता है । हमारे अज्ञान , असमर्थता को दूर करके सुखी होने का सच्चा मार्ग दिखला देता है , तो यह एक महान उपकार है ।
अनेक पंडा - पुजारी इस बात का विज्ञापन करते हैं कि अमुक व्यक्ति ने यहाँ इतने हजार का दान किया , यह देख और लोग भी बड़े धूमधाम से , प्रदर्शन के साथ दान करते हैं । इस प्रकार की नामवरी अथवा अहंकार की तुष्टि के लिए किया गया दान उत्तम नहीं होता । ' गीता ' में इसे
' तामसी ' श्रेणी का कहा गया है ।
स्वामी दयानंद का कहना है कि जो समीपवर्ती दीन - दुःखी जन पर तो दया भाव नहीं दिखाता , किन्तु दूरस्थ मनुष्य के लिए उसका प्रकाश करता है , उसे दयावान और सहानुभूति प्रकाशक नहीं कह सकते । दान आदि वृतियों का विकास , दीपक की ज्योति की भाँती , समीप से दूर तक फैलना चाहिए । धन का दान करने की अपेक्षा सेवा और सहायता का दान कहीं उत्कृष्ट है ।
स्वामीजी का कहना था कि जो निर्धन अन्न आदि का दान नहीं कर सकते वे विपन्न और व्याधि ग्रस्त लोगों की मदद करें , मीठे वचनों से उन्हें शान्ति दें ।
अनेक पंडा - पुजारी इस बात का विज्ञापन करते हैं कि अमुक व्यक्ति ने यहाँ इतने हजार का दान किया , यह देख और लोग भी बड़े धूमधाम से , प्रदर्शन के साथ दान करते हैं । इस प्रकार की नामवरी अथवा अहंकार की तुष्टि के लिए किया गया दान उत्तम नहीं होता । ' गीता ' में इसे
' तामसी ' श्रेणी का कहा गया है ।
स्वामी दयानंद का कहना है कि जो समीपवर्ती दीन - दुःखी जन पर तो दया भाव नहीं दिखाता , किन्तु दूरस्थ मनुष्य के लिए उसका प्रकाश करता है , उसे दयावान और सहानुभूति प्रकाशक नहीं कह सकते । दान आदि वृतियों का विकास , दीपक की ज्योति की भाँती , समीप से दूर तक फैलना चाहिए । धन का दान करने की अपेक्षा सेवा और सहायता का दान कहीं उत्कृष्ट है ।
स्वामीजी का कहना था कि जो निर्धन अन्न आदि का दान नहीं कर सकते वे विपन्न और व्याधि ग्रस्त लोगों की मदद करें , मीठे वचनों से उन्हें शान्ति दें ।
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