' स्रष्टि के इतिहास में युगों बाद विरले क्षण आते हैं जब पराचेतना स्वयं मानव से दान की गुहार करती है l ऐसे में धन - दौलत की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है ---- स्वयं के श्रम और समय का दान , और इससे भी कहीं श्रेष्ठतम है ----- स्वयं का , स्वयं के व्यक्तित्व का दान ---- युग निर्माण के लिए अपना उदाहरण प्रस्तुत करना । '
भगवान बुद्ध वैशाली नगर पधारे । प्रवचन समाप्त होने पर वैशाली के दण्डनायक हाथ जोड़ कर प्रार्थना की ---- " प्रभु ! भिक्षु संघ का स्वागत करने का सौभाग्य मांगने आया है यह जन सेवक । "
तथागत ने कहा " भन्ते ! बुद्ध कृपण की भिक्षा स्वीकार नहीं करते । दान करना चाहते हो तो दान का मर्म समझो और श्रेष्ठतम दान करो । "
वैशाली का प्रचंड दण्डनायक, नगर में जिस ओर निकलता था , सब उसके अभिवादन में खड़े हो जाते थे । आज गणमान्य नागरिकों , भिक्षुओं से भरी सभा में उसका अपमान , कृपण का संबोधन । उसकी मुख कांति लुप्त हो गई । वह सोचता , विचार करता रथ पर जा बैठा ----- ' दान सत्कार्य में सत्प्रयोजन के लिए स्वयं की शक्तियों का नियोजन है ' ------- अब वह ऐश्वर्य लुटाने लगा , दीन - दुःखी , दरिद्र , भिखारी सभी कृतार्थ हो रहे थे , चारों ओर उसकी ख्याति फैलने लगी ।
दण्डनायक की ख्याति के स्वर बुद्ध तक पहुंचे , यह सुन कर उन्होंने कहा ----- " सम्पदा को लुटा - फेंकने का नाम तो दान नहीं है । पात्र - कुपात्र का विचार किये बिना संचित साधनों को भावुकता वश फेंकने लगना, अर्जित पूंजी को अँधेरे कुएं में डालना है जिसके सत्परिणाम कम और दुष्परिणाम अधिक देखने में आते हैं और समय आने पर सत्पात्र को अनसुना कर देना घातक है । "
दण्डनायक सोचने लगा , उसे अपनी भूल समझ में आने लगी कि--- अभी तक तो दान के नाम पर सिर्फ अहम् का पोषण रहा , नाम को फ़ैलाने और यश को बटोरने की ओछी शुरुआत भर हुई ।
उनका मन प्रायश्चित से भर उठा । वे सोचने लगे कि स्वयं की शक्तियां क्या हैं ? इसका स्रोत क्या है ? इसका स्रोत है -- स्वयं का व्यक्तित्व ।
वे अपनी पत्नी के साथ भगवन बुद्ध के समीप पहुंचे , उनके चरणों में निवेदन कर बोले ---- " प्रभु ! सम्पति आपकी , निवास आपका और हम दोनों आपके । " महादान का यह स्वरुप देखकर सब आश्चर्य चकित हुए । बुद्ध ने कहा ---- स्वयं से ज्योति का सत्कार करो , अपनी बातों और भाषणों से नहीं , अपने आचरण से शिक्षा दो ।
भगवान बुद्ध वैशाली नगर पधारे । प्रवचन समाप्त होने पर वैशाली के दण्डनायक हाथ जोड़ कर प्रार्थना की ---- " प्रभु ! भिक्षु संघ का स्वागत करने का सौभाग्य मांगने आया है यह जन सेवक । "
तथागत ने कहा " भन्ते ! बुद्ध कृपण की भिक्षा स्वीकार नहीं करते । दान करना चाहते हो तो दान का मर्म समझो और श्रेष्ठतम दान करो । "
वैशाली का प्रचंड दण्डनायक, नगर में जिस ओर निकलता था , सब उसके अभिवादन में खड़े हो जाते थे । आज गणमान्य नागरिकों , भिक्षुओं से भरी सभा में उसका अपमान , कृपण का संबोधन । उसकी मुख कांति लुप्त हो गई । वह सोचता , विचार करता रथ पर जा बैठा ----- ' दान सत्कार्य में सत्प्रयोजन के लिए स्वयं की शक्तियों का नियोजन है ' ------- अब वह ऐश्वर्य लुटाने लगा , दीन - दुःखी , दरिद्र , भिखारी सभी कृतार्थ हो रहे थे , चारों ओर उसकी ख्याति फैलने लगी ।
दण्डनायक की ख्याति के स्वर बुद्ध तक पहुंचे , यह सुन कर उन्होंने कहा ----- " सम्पदा को लुटा - फेंकने का नाम तो दान नहीं है । पात्र - कुपात्र का विचार किये बिना संचित साधनों को भावुकता वश फेंकने लगना, अर्जित पूंजी को अँधेरे कुएं में डालना है जिसके सत्परिणाम कम और दुष्परिणाम अधिक देखने में आते हैं और समय आने पर सत्पात्र को अनसुना कर देना घातक है । "
दण्डनायक सोचने लगा , उसे अपनी भूल समझ में आने लगी कि--- अभी तक तो दान के नाम पर सिर्फ अहम् का पोषण रहा , नाम को फ़ैलाने और यश को बटोरने की ओछी शुरुआत भर हुई ।
उनका मन प्रायश्चित से भर उठा । वे सोचने लगे कि स्वयं की शक्तियां क्या हैं ? इसका स्रोत क्या है ? इसका स्रोत है -- स्वयं का व्यक्तित्व ।
वे अपनी पत्नी के साथ भगवन बुद्ध के समीप पहुंचे , उनके चरणों में निवेदन कर बोले ---- " प्रभु ! सम्पति आपकी , निवास आपका और हम दोनों आपके । " महादान का यह स्वरुप देखकर सब आश्चर्य चकित हुए । बुद्ध ने कहा ---- स्वयं से ज्योति का सत्कार करो , अपनी बातों और भाषणों से नहीं , अपने आचरण से शिक्षा दो ।
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