' श्रेष्ठ मनुष्यों की कार्यप्रणाली यही होती है कि वे किसी भी परिस्थिति में धैर्य नहीं छोड़ते और फल की चिन्ता न करके अपने कर्तव्यपालन में लगे रहते हैं । इसका परिणाम प्राय: यह होता है कि, ईश्वर उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करता है , इस कहावत के अनुसार किसी न किसी स्रोत से उनको सहायता भी मिल जाती है । यदि सहायता न भी मिले तो ह्रदय में यह सन्तोष रहता है कि हमने अपनी सामर्थ्य भर उद्दोग कर लिया , सफलता - असफलता परमात्मा के अधीन है ।
इसी दैवी नियम को अपना आदर्श मानकर महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर दोनों संस्थाओं ---- ' विश्व - भारती ' और ' शान्ति निकेतन 'का संचालन अपने जीवन के अंतिम वर्ष ( 1941 ) तक करते रहे ।
महाकवि रवीन्द्र वंशक्रम से उच्च पदस्थ और धनी व्यक्ति थे , अपनी अप्रतिम योग्यता से भी उन्होंने बहुत कमाया । उनकी लिखी पुस्तकों की बिक्री देश - विदेश में इतनी हो जाती थी कि उससे भी पर्याप्त आय होती थी । अपनी इस सम्पति को उन्होंने ज्ञान यज्ञ ----- विश्व भारती और शान्ति निकेतन को समर्पित कर दिया था ।
जब इन संस्थाओं का अधिक विस्तार हो गया और उसमे एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर की योग्यता के शिक्षकों को रखने की आवश्यकता पड़ी तो उनके निजी साधन अपर्याप्त सिद्ध हुए । बाहर के धनिकों ने स्वेच्छा से जो सहायता दी थी , वह भी इस व्यय की पूर्ति न कर सकी | इस पर भी महा कवि ने हिम्मत नहीं हारी | 80 वर्ष की आयु में संस्था के लिए धन एकत्रित करने अपनी शिष्य मंडली के साथ निकले और नाटक में अभिनय कर धन कमाने का निश्चय किया | कई स्थानों में अभिनय भी किया | जब गांधीजी ने यह सुना कि महाकवि को इस अंतिम अवस्था में अस्वस्थ होने पर भी संस्था के लिए धन एकत्रित करने स्थान - स्थान भटकना पड़ रहा है तो उन्होंने अपने एक धनी अनुयायी को उनकी सहायता के लिए प्रेरणा दी और बम्बई पहुँचते ही महाकवि को 60 हजार रूपये का चेक प्राप्त हो गया l व्यय की समस्या हल हो जाने पर वह अपने आश्रम में वापस आ गये l
इसी दैवी नियम को अपना आदर्श मानकर महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर दोनों संस्थाओं ---- ' विश्व - भारती ' और ' शान्ति निकेतन 'का संचालन अपने जीवन के अंतिम वर्ष ( 1941 ) तक करते रहे ।
महाकवि रवीन्द्र वंशक्रम से उच्च पदस्थ और धनी व्यक्ति थे , अपनी अप्रतिम योग्यता से भी उन्होंने बहुत कमाया । उनकी लिखी पुस्तकों की बिक्री देश - विदेश में इतनी हो जाती थी कि उससे भी पर्याप्त आय होती थी । अपनी इस सम्पति को उन्होंने ज्ञान यज्ञ ----- विश्व भारती और शान्ति निकेतन को समर्पित कर दिया था ।
जब इन संस्थाओं का अधिक विस्तार हो गया और उसमे एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर की योग्यता के शिक्षकों को रखने की आवश्यकता पड़ी तो उनके निजी साधन अपर्याप्त सिद्ध हुए । बाहर के धनिकों ने स्वेच्छा से जो सहायता दी थी , वह भी इस व्यय की पूर्ति न कर सकी | इस पर भी महा कवि ने हिम्मत नहीं हारी | 80 वर्ष की आयु में संस्था के लिए धन एकत्रित करने अपनी शिष्य मंडली के साथ निकले और नाटक में अभिनय कर धन कमाने का निश्चय किया | कई स्थानों में अभिनय भी किया | जब गांधीजी ने यह सुना कि महाकवि को इस अंतिम अवस्था में अस्वस्थ होने पर भी संस्था के लिए धन एकत्रित करने स्थान - स्थान भटकना पड़ रहा है तो उन्होंने अपने एक धनी अनुयायी को उनकी सहायता के लिए प्रेरणा दी और बम्बई पहुँचते ही महाकवि को 60 हजार रूपये का चेक प्राप्त हो गया l व्यय की समस्या हल हो जाने पर वह अपने आश्रम में वापस आ गये l
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