श्रीमती नायडू ने देश और विदेश में सदैव भारत की प्राचीन संस्कृति की प्रशंसा की थी , वे बड़े गर्व के साथ कहा करती थीं ----- " मैं उस जाति की वंशजा हूँ जिसकी माताओं के समक्ष सीता की पवित्रता , सावित्री के साहस और दमयन्ती के विश्वास का आदर्श है । "
श्रीमती सरोजिनी नायडू जन्मजात कवयित्री थीं और अंग्रेजी भाषा पर उनका इतना अधिकार था कि उनकी बारह वर्ष की आयु में लिखी गई कविताओं की भी लोगों ने बड़ी प्रशंसा की ।
जब वे 15 - 16 वर्ष की थीं तो इंग्लैंड की एक एक निजी गोष्ठी में प्रसिद्ध साहित्यकारों से वार्तालाप कर रहीं थीं । उनमे अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक एंडमंड गोसे भी थे । कुछ सोच - विचारकर सरोजिनी नायडू ने अपनी कुछ काव्य रचनाएँ गोसे के हाथ में दीं और कहा ----- " इनके विषय में अपनी सम्मति देने की कृपा करें । "
गोसे ने बड़े ध्यान से उन रचनाओं को पढ़ा , उन पर विचार किया और फिर कहने लगे ----- " शायद आपको मेरी बात बुरी जान पड़े , पर मेरी सच्ची राय यही है कि आप इन सब रचनाओं को रद्दी की टोकरी में डाल दें । तुम जैसी एक बुद्धिमती भारतीय नारी से , जिसने पश्चिमी भाषा और काव्य रचना में दक्षता प्राप्त कर ली है , हम यूरोप के वातावरण और सभ्यता को लेकर लिखे गये काव्य की अपेक्षा नहीं करते । हम चाहते हैं कि आप हमको ऐसी रचनाएँ दें जिनमे हम न केवल भारत के वरन पूरे पूर्व की आत्मा के दर्शन कर सकें । "
अपनी रचनाओं की यह आलोचना उस कवयित्री को हितकर जान पड़ी और उसी दिन से उन्होंने गोसे को अपना गुरु मान लिया । उसके पश्चात उन्होंने जो काव्य रचनाएँ कीं उसमे यूरोप की नकल करने के बजाय भारत और पूर्व में अंतर्निहित विशेषताओं के दर्शन ही यूरोप वालों ने किये और सर्वत्र उनका बड़ा सम्मान होने लगा ।
वे एक ऐसी सुकुमार भावुक कवयित्री थीं , जिनको लोग प्राय: 'स्वप्न देश की रानी ' कहा करते थे , उनका साहित्यिक से राजनीतिक संघर्ष के मैदान में उतर आना एक विशेष घटना है । जब महात्मा गाँधी ने नमक - सत्याग्रह के लिए ' डांडी ' की प्रसिद्द यात्रा की और 5 मई 1930 को वे गिरफ्तार कर लिए गये , तो श्रीमती सरोजिनी ने उनका स्थान ग्रहण किया । वे धरसाना के नमक गोदाम पर धावा करने वाले स्वयंसेवकों का नेतृत्व करती हुई सरकारी फौज के घेरे में एक ही स्थान पर 72 घंटे तक डटी रहीं । इस बीच उन्होंने न अन्न - जल ग्रहण किया और न जेठ मास की भयंकर दोपहरी की परवाह की ।
श्रीमती सरोजिनी नायडू जन्मजात कवयित्री थीं और अंग्रेजी भाषा पर उनका इतना अधिकार था कि उनकी बारह वर्ष की आयु में लिखी गई कविताओं की भी लोगों ने बड़ी प्रशंसा की ।
जब वे 15 - 16 वर्ष की थीं तो इंग्लैंड की एक एक निजी गोष्ठी में प्रसिद्ध साहित्यकारों से वार्तालाप कर रहीं थीं । उनमे अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक एंडमंड गोसे भी थे । कुछ सोच - विचारकर सरोजिनी नायडू ने अपनी कुछ काव्य रचनाएँ गोसे के हाथ में दीं और कहा ----- " इनके विषय में अपनी सम्मति देने की कृपा करें । "
गोसे ने बड़े ध्यान से उन रचनाओं को पढ़ा , उन पर विचार किया और फिर कहने लगे ----- " शायद आपको मेरी बात बुरी जान पड़े , पर मेरी सच्ची राय यही है कि आप इन सब रचनाओं को रद्दी की टोकरी में डाल दें । तुम जैसी एक बुद्धिमती भारतीय नारी से , जिसने पश्चिमी भाषा और काव्य रचना में दक्षता प्राप्त कर ली है , हम यूरोप के वातावरण और सभ्यता को लेकर लिखे गये काव्य की अपेक्षा नहीं करते । हम चाहते हैं कि आप हमको ऐसी रचनाएँ दें जिनमे हम न केवल भारत के वरन पूरे पूर्व की आत्मा के दर्शन कर सकें । "
अपनी रचनाओं की यह आलोचना उस कवयित्री को हितकर जान पड़ी और उसी दिन से उन्होंने गोसे को अपना गुरु मान लिया । उसके पश्चात उन्होंने जो काव्य रचनाएँ कीं उसमे यूरोप की नकल करने के बजाय भारत और पूर्व में अंतर्निहित विशेषताओं के दर्शन ही यूरोप वालों ने किये और सर्वत्र उनका बड़ा सम्मान होने लगा ।
वे एक ऐसी सुकुमार भावुक कवयित्री थीं , जिनको लोग प्राय: 'स्वप्न देश की रानी ' कहा करते थे , उनका साहित्यिक से राजनीतिक संघर्ष के मैदान में उतर आना एक विशेष घटना है । जब महात्मा गाँधी ने नमक - सत्याग्रह के लिए ' डांडी ' की प्रसिद्द यात्रा की और 5 मई 1930 को वे गिरफ्तार कर लिए गये , तो श्रीमती सरोजिनी ने उनका स्थान ग्रहण किया । वे धरसाना के नमक गोदाम पर धावा करने वाले स्वयंसेवकों का नेतृत्व करती हुई सरकारी फौज के घेरे में एक ही स्थान पर 72 घंटे तक डटी रहीं । इस बीच उन्होंने न अन्न - जल ग्रहण किया और न जेठ मास की भयंकर दोपहरी की परवाह की ।
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