' सत्कर्म और सत्प्रयास कभी निष्फल नहीं जाते | हमें परिणाम के लिए शीघ्रता न करके अपने तन , मन , धन से प्रयत्नों में लगे रहना चाहिए । यदि हमारा पक्ष सत्य और न्याय पर आधारित है तो अंततः हमारी जीत होगी , यह निश्चित है । '
दादाभाई नौरोजी ( जन्म 1825 ) जब चार वर्ष के थे , उनके पिता की मृत्यु हो गई । परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी । यद्दपि पारसियों में विधवा - विवाह की व्यवस्था है , पर उनकी माँ ने आजीवन वैधव्य में रहकर अपने परिश्रम के बल पर अपनी एकमात्र सन्तान दादाभाई को लिखा - पढ़ाकर योग्य बनाने में जीवन की सार्थकता समझी ।
दादाभाई ने स्वयं एक स्थान पर कहा है ---- " अपने आचरण में आज मैं जिस प्रकाश के दर्शन कर रहा हूँ , वह मेरी ममतामयी माता का ही फैलाया हुआ है । आज मैं जो कुछ भी हूँ वह सब मेरी माता का ही प्रसाद है । "
अपने शिक्षा सम्बन्धी संस्मरण के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि-----" मैं बम्बई के भूतपूर्व गवर्नर श्री माउन्टन स्टुअर्ट एलफिन्स्टन का आभारी हूँ जिन्होंने भारत में शिक्षा प्रसार के मन्तव्य से गवर्नर पद से इस्तीफा दे कर ' नेटिव एजुकेशन सोसाइटी ' की स्थापना की । ' दादाभाई का कहना था कि उनकी माँ आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी , यदि इस संस्था के तत्वाधान में चलने वाले स्कूल, कालेज में फीस देनी पड़ती तो मैं उच्च शिक्षा से वंचित रह गया होता । '
' नेटिव एजुकेशन सोसाइटी ' के निशुल्क शिक्षा सिद्धान्त में उनकी अखण्ड आस्था थी । उनका कहना था कि---- मेरा दावा है कि भारत में यदि निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था कर दी जाये तो एक से एक विलक्षण प्रतिभाएं समाज की सेवा के लिए विकसित और प्रकाशित हो सकती हैं । यदि समाज के धनी - मानी तथा शिक्षित वर्ग मिलकर निर्धन युवकों और बच्चों के लिए निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करें , तो यह समाज और देशहित में एक बहुत बड़ा काम होगा । '
शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने देश और समाज के हित में उसका उपयोग किया । अपनी माँ की प्रेरणा से उन्होंने स्त्री - शिक्षा का प्रचार किया । उस समय के शताब्दियों से पिछड़े समाज में स्त्री - शिक्षा का विचार सर्वथा नया था । पग - पग पर समाज का विरोध । सब कुछ सहन करते हुए अथक प्रयास से छ: कन्या पाठशालाओं के लिए 44 पारसी और 24 हिन्दू कन्याएं मिल गईं । कन्या पाठशालाएं लगने लगीं । इस प्रकार बम्बई और बम्बई के माध्यम से भारत में एक युग से स्त्री शिक्षा का वह दीप फिर जल उठा जो देश पर आये आंधी - तूफानों में बुझ गया था ।
दादाभाई नौरोजी ( जन्म 1825 ) जब चार वर्ष के थे , उनके पिता की मृत्यु हो गई । परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी । यद्दपि पारसियों में विधवा - विवाह की व्यवस्था है , पर उनकी माँ ने आजीवन वैधव्य में रहकर अपने परिश्रम के बल पर अपनी एकमात्र सन्तान दादाभाई को लिखा - पढ़ाकर योग्य बनाने में जीवन की सार्थकता समझी ।
दादाभाई ने स्वयं एक स्थान पर कहा है ---- " अपने आचरण में आज मैं जिस प्रकाश के दर्शन कर रहा हूँ , वह मेरी ममतामयी माता का ही फैलाया हुआ है । आज मैं जो कुछ भी हूँ वह सब मेरी माता का ही प्रसाद है । "
अपने शिक्षा सम्बन्धी संस्मरण के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि-----" मैं बम्बई के भूतपूर्व गवर्नर श्री माउन्टन स्टुअर्ट एलफिन्स्टन का आभारी हूँ जिन्होंने भारत में शिक्षा प्रसार के मन्तव्य से गवर्नर पद से इस्तीफा दे कर ' नेटिव एजुकेशन सोसाइटी ' की स्थापना की । ' दादाभाई का कहना था कि उनकी माँ आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी , यदि इस संस्था के तत्वाधान में चलने वाले स्कूल, कालेज में फीस देनी पड़ती तो मैं उच्च शिक्षा से वंचित रह गया होता । '
' नेटिव एजुकेशन सोसाइटी ' के निशुल्क शिक्षा सिद्धान्त में उनकी अखण्ड आस्था थी । उनका कहना था कि---- मेरा दावा है कि भारत में यदि निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था कर दी जाये तो एक से एक विलक्षण प्रतिभाएं समाज की सेवा के लिए विकसित और प्रकाशित हो सकती हैं । यदि समाज के धनी - मानी तथा शिक्षित वर्ग मिलकर निर्धन युवकों और बच्चों के लिए निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करें , तो यह समाज और देशहित में एक बहुत बड़ा काम होगा । '
शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने देश और समाज के हित में उसका उपयोग किया । अपनी माँ की प्रेरणा से उन्होंने स्त्री - शिक्षा का प्रचार किया । उस समय के शताब्दियों से पिछड़े समाज में स्त्री - शिक्षा का विचार सर्वथा नया था । पग - पग पर समाज का विरोध । सब कुछ सहन करते हुए अथक प्रयास से छ: कन्या पाठशालाओं के लिए 44 पारसी और 24 हिन्दू कन्याएं मिल गईं । कन्या पाठशालाएं लगने लगीं । इस प्रकार बम्बई और बम्बई के माध्यम से भारत में एक युग से स्त्री शिक्षा का वह दीप फिर जल उठा जो देश पर आये आंधी - तूफानों में बुझ गया था ।
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