लगभग चार वर्ष तक यूरोप - अमरीका में हिन्दू- धर्म की ध्वजा फहराकर तथा हजारों पश्चिमी लोगों को वेदांत और भारतीय अध्यात्म का अनुयायी बनाकर 16 दिसम्बर 1896 को स्वामीजी ने भारतवर्ष के लिए प्रस्थान किया ।
अभी तक स्वामीजी के अधिकांश गुरु भाइयों का आदर्श मध्यकाल के संन्यासियों की भांति सांसारिक विषयों से अलग रहकर कठोर तपस्या और ध्यान द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना ही था । पर स्वामीजी ने उसमे एक नया मोड़ देने के उद्देश्य से कहा ---- " समय की गति को देखते हुए तुम्हे लोगों का मार्गदर्शन करना चाहिए । गरीब , निराधार और दुःखी मनुष्यों में ईश्वर का दर्शन करके उनकी सेवा करनी , यह अपने उदाहरण से बतलाना चाहिए और दूसरों को वैसा करने की प्रेरणा देनी चाहिए । दूसरों की सहायता और उद्धार के लिए अपना जीवन अर्पण करें , ऐसे संन्यासियों का एक नया संघ भारत में तैयार करना ही मेरा जीवन कार्य है । "
बहुत कुछ वाद - विवाद और आनाकानी के पश्चात् अन्य संन्यासी स्वामीजी के इस आदेश को श्री रामकृष्ण की प्रेरणा समझ कर इस पर सहमत हुए । तदनुसार मई 1897 में ' रामकृष्ण मिशन ' की स्थापना की गई ।
जब वे अपने देशी - विदेशी सहकारियों के साथ बेलूड़ में श्रीरामकृष्ण मठ की स्थापना की योजना में संलग्न थे । उस समय कलकत्ता में महामारी प्लेग का प्रकोप था , प्रतिदिन सैकड़ों व्यक्तियों पर उसका आक्रमण होता था । लोगों पर इस घोर विपत्ति को आया देखकर वे सब काम छोड़कर कर्मक्षेत्र में कूद पड़े और बीमारों की चिकित्सा तथा सफाई की एक बड़ी योजना बना डाली ।
एक गुरुभाई ने पूछा ---- " स्वामीजी ! इतनी बड़ी योजना के लिए फंड कहाँ से आयेगा ? "
स्वामीजी ने तुरंत उत्तर दिया ---- ' आवश्यकता पड़ेगी तो इस मठ के लिए जो जमीन खरीदी है उसे बेच डालेंगे । सच्चा मठ तो सेवा कार्य है । "
जब स्वामीजी का स्वास्थ्य निर्बल रहने लगा तब भी सार्वजनिक सेवा का जो काम आता उसे अवश्य पूरा करते और अपने शिष्यों को भी सदा यही उपदेश देते कि -- ' मानव जीवन का उद्देश्य परोपकार तथा सेवा ही है । जब तक यह उद्देश्य पूरा हो सके तभी तक जीना यथार्थ है । जब इसकी पूर्ति कर सकने की सामर्थ्य न रहे तो जीवन का अन्त हो जाना ही श्रेष्ठ है । '
अभी तक स्वामीजी के अधिकांश गुरु भाइयों का आदर्श मध्यकाल के संन्यासियों की भांति सांसारिक विषयों से अलग रहकर कठोर तपस्या और ध्यान द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना ही था । पर स्वामीजी ने उसमे एक नया मोड़ देने के उद्देश्य से कहा ---- " समय की गति को देखते हुए तुम्हे लोगों का मार्गदर्शन करना चाहिए । गरीब , निराधार और दुःखी मनुष्यों में ईश्वर का दर्शन करके उनकी सेवा करनी , यह अपने उदाहरण से बतलाना चाहिए और दूसरों को वैसा करने की प्रेरणा देनी चाहिए । दूसरों की सहायता और उद्धार के लिए अपना जीवन अर्पण करें , ऐसे संन्यासियों का एक नया संघ भारत में तैयार करना ही मेरा जीवन कार्य है । "
बहुत कुछ वाद - विवाद और आनाकानी के पश्चात् अन्य संन्यासी स्वामीजी के इस आदेश को श्री रामकृष्ण की प्रेरणा समझ कर इस पर सहमत हुए । तदनुसार मई 1897 में ' रामकृष्ण मिशन ' की स्थापना की गई ।
जब वे अपने देशी - विदेशी सहकारियों के साथ बेलूड़ में श्रीरामकृष्ण मठ की स्थापना की योजना में संलग्न थे । उस समय कलकत्ता में महामारी प्लेग का प्रकोप था , प्रतिदिन सैकड़ों व्यक्तियों पर उसका आक्रमण होता था । लोगों पर इस घोर विपत्ति को आया देखकर वे सब काम छोड़कर कर्मक्षेत्र में कूद पड़े और बीमारों की चिकित्सा तथा सफाई की एक बड़ी योजना बना डाली ।
एक गुरुभाई ने पूछा ---- " स्वामीजी ! इतनी बड़ी योजना के लिए फंड कहाँ से आयेगा ? "
स्वामीजी ने तुरंत उत्तर दिया ---- ' आवश्यकता पड़ेगी तो इस मठ के लिए जो जमीन खरीदी है उसे बेच डालेंगे । सच्चा मठ तो सेवा कार्य है । "
जब स्वामीजी का स्वास्थ्य निर्बल रहने लगा तब भी सार्वजनिक सेवा का जो काम आता उसे अवश्य पूरा करते और अपने शिष्यों को भी सदा यही उपदेश देते कि -- ' मानव जीवन का उद्देश्य परोपकार तथा सेवा ही है । जब तक यह उद्देश्य पूरा हो सके तभी तक जीना यथार्थ है । जब इसकी पूर्ति कर सकने की सामर्थ्य न रहे तो जीवन का अन्त हो जाना ही श्रेष्ठ है । '
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