सार्वजानिक सेवा और राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने वालों के लिए अहंकार और प्रशंसा की भूख ----- ये दो ऐसी बाधाएं हैं , जो उच्च कोटि के व्यक्तियों में भी पायी जाती हैं । इसी के फलस्वरूप नेताओं में प्राय: मतभेद और प्रतिस्पर्धा की भावनाएं प्रबल होती हैं और वे लोक हित की अपेक्षा अपने हठ और पक्ष को अधिक महत्व देने लग जाते हैं । ऐसे लोग अनेक अवसरों पर जनता की सेवा के स्थान पर उनकी कुसेवा करने लग जाते हैं और उपयोगी सार्वजानिक आंदोलनों तथा संस्थाओं की असफलता का कारण बनते हैं ।
जो लोग धन या अन्य किसी निम्न कोटि की स्वार्थ भावना से मुक्त होते हैं और सच्चे ह्रदय से परोपकारी और त्यागी होते हैं , वे भी अहंकार या आत्म - प्रशंसा के फंदे में फंसकर मार्ग - भ्रष्ट हो जाते हैं ।
इसलिए भारतीय ऋषियों ने अपने सत्कर्मों को भी ' ईश्वर-अर्पण ' करने पर जोर दिया है जिससे अहंकार और स्वार्थ भावना को सिर उठाने का अवसर ही न मिले । उनका वचन है कि----
जब तक सेवा कार्यों को नि:स्वार्थ बुद्धि और ईश्वरीय आदेश के पालन के रूप में न करेंगे तब तक सच्ची और स्थायी सफलता नहीं मिल सकती और न ही आत्मिक शान्ति के अधिकारी बन सकते हैं । '
जो लोग धन या अन्य किसी निम्न कोटि की स्वार्थ भावना से मुक्त होते हैं और सच्चे ह्रदय से परोपकारी और त्यागी होते हैं , वे भी अहंकार या आत्म - प्रशंसा के फंदे में फंसकर मार्ग - भ्रष्ट हो जाते हैं ।
इसलिए भारतीय ऋषियों ने अपने सत्कर्मों को भी ' ईश्वर-अर्पण ' करने पर जोर दिया है जिससे अहंकार और स्वार्थ भावना को सिर उठाने का अवसर ही न मिले । उनका वचन है कि----
जब तक सेवा कार्यों को नि:स्वार्थ बुद्धि और ईश्वरीय आदेश के पालन के रूप में न करेंगे तब तक सच्ची और स्थायी सफलता नहीं मिल सकती और न ही आत्मिक शान्ति के अधिकारी बन सकते हैं । '
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