यदि दुःख को सकारात्मक भाव से लिया जाये तो मन धुलता है , सशक्त होता है l महर्षि अरविन्द पांडिचेरी तो पहुँच गए , पर वहां उनकी 21 दिन तक खाने की कोई सही व्यवस्था नहीं हो पाई l कई बार तो मात्र पानी पीकर ही रह जाते थे l उनने मोतीलाल राय को उन दिनों एक पत्र में लिखा था ---- " भगवान को अंतिम समय में मदद करने की आदत पड़ गई है l मेरे साथ आये सभी कष्ट में हैं , पर यह भी तप है , यह मानकर सभी मेरे साथ प्रसन्न भाव से रह रहे हैं l " उन दिनों भी श्री अरविन्द अपनी दिनचर्या के अंतर्गत नित्य चार मील टहलते थे l छ: घंटे साधना करते थे l
सोच सकारात्मक हो और ईश्वर पर अटूट विश्वास हो तो दुःख को ईश्वरीय विधान मानकर खुशी से स्वीकार करने से मन शान्त रहता है l
सोच सकारात्मक हो और ईश्वर पर अटूट विश्वास हो तो दुःख को ईश्वरीय विधान मानकर खुशी से स्वीकार करने से मन शान्त रहता है l
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