युवराज आदित्यसेन भगवती के मंदिर में दर्शन हेतु आने वाले थे l पूरा मंदिर सजा हुआ था l वे आये , उन्होंने अपनी चरण - पादुकाएं द्वारपाल चित्रक के पास छोड़ी और स्वयं मंदिर में दर्शन के लिए चले गए l रेशमकढ़ी पादुकाओं में धूल के कण देखकर चित्रक ने उन्हें अपने अंगोछे से साफ किया l लेकिन पादुकाएं और गन्दी हो गईं l युवराज बाहर आये , उद्दंड स्वभाव के तो थे , उनने देखा चित्रक सिर झुकाए खड़ा है l बिना सोचे - समझे उनने चित्रक के कपाल पर पादुका दे मारी l खून निकल आया l चित्रक अपमानित स्थिति में , क्रोध की ज्वाला में भरा हुआ घर पहुंचा l कई दिन उसने अन्न नहीं खाया , प्रतिशोध की ज्वाला में वह जल रहा था l
चित्रक की पत्नी कुशला ने समझाया --- " स्वामी ! यह प्रतिशोध की अग्नि आपको नष्ट कर देगी l प्रतिशोध का सही तरीका मैं बतलाती हूँ l l स्वस्थ चित्त हो नहाकर चित्रक भोजन को बैठे l भोजन के बाद कुशला ने सारी व्यवस्थाओं के साथ चित्रक को विद्दा अध्ययन के लिए वाराणसी भेज दिया l दस वर्ष के कठोर तप , विद्दा अध्ययन और इन्द्रिय संयम ने उन्हें आचार्य चित्रक बना दिया , जिनकी ख्याति चारों ओर फैल गई l
युवराज भी अब महाराज बन गए l राजमाता की सेहत के लिए एक यज्ञ आयोजित किया गया , जिसका आचार्य चित्रक को ही बनाया गया l उन दिनों आचार्य ब्रह्मा के रूप में महाराज से भी ज्यादा सम्मान पाते थे l चित्रक ने सफलता पूर्वक यज्ञ संपन्न किया l दक्षिणा का समय आया , तो वे बदले के रूप में कुछ भी मांग सकते थे , लेकिन उनने आदित्यसेन की पुरानी पादुकाएं मांग लीं l प्रतिदिन उनकी पूजा करते l महाराज मिलने आते तो देखते कि उनकी पादुकाओं की पूजा हो रही है l एक दिन राजा ने पूछा --- " आचार्य प्रवर ! पुरानी पादुकाएं , वह भी मेरे जैसे साधारण पुरुष की , आप क्यों इनकी पूजा करते हैं ? "
चित्रक ने कहा ---- " आज मैं जो कुछ भी हूँ , इनकी एवं अपनी पत्नी की शिक्षा की वजह से हूँ l मैं प्रतिशोध से जल रहा था , जब आपने इन्हें मेरे सिर पर मारा था l पत्नी ने काशी भेजा , तब मैं आचार्य बन सका l " अपने द्वारपाल को इस रूप में देखकर राजा शर्मिंदा हुए , फिर पुन: प्रणाम कर राज्य स्तर पर उन्हें सम्मानित किया एवं राजपुरोहित बनाया l
चित्रक की पत्नी कुशला ने समझाया --- " स्वामी ! यह प्रतिशोध की अग्नि आपको नष्ट कर देगी l प्रतिशोध का सही तरीका मैं बतलाती हूँ l l स्वस्थ चित्त हो नहाकर चित्रक भोजन को बैठे l भोजन के बाद कुशला ने सारी व्यवस्थाओं के साथ चित्रक को विद्दा अध्ययन के लिए वाराणसी भेज दिया l दस वर्ष के कठोर तप , विद्दा अध्ययन और इन्द्रिय संयम ने उन्हें आचार्य चित्रक बना दिया , जिनकी ख्याति चारों ओर फैल गई l
युवराज भी अब महाराज बन गए l राजमाता की सेहत के लिए एक यज्ञ आयोजित किया गया , जिसका आचार्य चित्रक को ही बनाया गया l उन दिनों आचार्य ब्रह्मा के रूप में महाराज से भी ज्यादा सम्मान पाते थे l चित्रक ने सफलता पूर्वक यज्ञ संपन्न किया l दक्षिणा का समय आया , तो वे बदले के रूप में कुछ भी मांग सकते थे , लेकिन उनने आदित्यसेन की पुरानी पादुकाएं मांग लीं l प्रतिदिन उनकी पूजा करते l महाराज मिलने आते तो देखते कि उनकी पादुकाओं की पूजा हो रही है l एक दिन राजा ने पूछा --- " आचार्य प्रवर ! पुरानी पादुकाएं , वह भी मेरे जैसे साधारण पुरुष की , आप क्यों इनकी पूजा करते हैं ? "
चित्रक ने कहा ---- " आज मैं जो कुछ भी हूँ , इनकी एवं अपनी पत्नी की शिक्षा की वजह से हूँ l मैं प्रतिशोध से जल रहा था , जब आपने इन्हें मेरे सिर पर मारा था l पत्नी ने काशी भेजा , तब मैं आचार्य बन सका l " अपने द्वारपाल को इस रूप में देखकर राजा शर्मिंदा हुए , फिर पुन: प्रणाम कर राज्य स्तर पर उन्हें सम्मानित किया एवं राजपुरोहित बनाया l
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