अहंकारी व्यक्ति अपने जीवन में किसी भी तरह झुकना पसंद नहीं करता और अपने अहंकार के कारण दूसरों को अपने तर्कों से पराजित करने में लगा रहता है कि किस प्रकार वह सही है और दूसरा गलत है l अहंकारी व्यक्ति अपनी शक्ति को व्यर्थ ही दूसरों से बड़ा सिद्ध करने में गंवाता है l इससे संबंधित एक प्रसंग है ------ दक्षिण भारत के ज्ञानी , तपस्वी सदाशिव ब्रह्मेन्द्र स्वामी अपने गुरु के आश्रम में वेदांत का अध्ययन कर रहे थे l एक दिन एक विद्वान पंडित आश्रम में पधारे l किसी विषय पर उनका सदाशिव से विवाद हो गया , सदाशिव ने अपने तर्कों से उन पंडित को परास्त कर दिया l स्थिति ऐसी बन गई कि उन पंडित महाशय को ब्रह्मेन्द्र स्वामी से क्षमा - याचना करनी पड़ी l
ब्रह्मेन्द्र स्वामी ने बहुत प्रसन्न होकर यह घटना अपने गुरु को सुनाई और सोचा कि गुरुदेव प्रसन्न होकर उन्हें शाबाशी देंगे l लेकिन हुआ इसके विपरीत l गुरु ने सदाशिव स्वामी को कड़ी फटकार लगाई और कहा ----- " सदाशिव ! श्रेष्ठ चिंतन की सार्थकता तभी है , जब उससे श्रेष्ठ चरित्र बने , और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक है , जब वह श्रेष्ठ व्यवहार बनकर प्रकट हो l तुमने वेदांत का अध्ययन तो किया परन्तु एक ज्ञाननिष्ठ साधक का चरित्र नहीं गढ़ पाए और न ही एक श्रेष्ठ साधक का व्यवहार करने में समर्थ हो पाए , इसलिए तुम्हारे अब तक के सारे अध्ययन - चिंतन को बस धिक्कार योग्य ही माना जा सकता है l "
गुरु के इन वचनों को सुनकर सदाशिव स्वामी का अहंकार चूर - चूर हो गया , उन्होंने अति विनम्रता से पूछा --- " हे गुरुदेव ! हम अपना व्यक्तित्व किस भांति गढ़ें l " गुरु ने उन्हें समझाया कि तर्क - कुतर्क के माध्यम से अपनी विद्वता का प्रदर्शन मत करो l मौन रहकर अपने चिंतन को विकसित करो , और उसके अनुरूप श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण करो l
ब्रह्मेन्द्र स्वामी ने बहुत प्रसन्न होकर यह घटना अपने गुरु को सुनाई और सोचा कि गुरुदेव प्रसन्न होकर उन्हें शाबाशी देंगे l लेकिन हुआ इसके विपरीत l गुरु ने सदाशिव स्वामी को कड़ी फटकार लगाई और कहा ----- " सदाशिव ! श्रेष्ठ चिंतन की सार्थकता तभी है , जब उससे श्रेष्ठ चरित्र बने , और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक है , जब वह श्रेष्ठ व्यवहार बनकर प्रकट हो l तुमने वेदांत का अध्ययन तो किया परन्तु एक ज्ञाननिष्ठ साधक का चरित्र नहीं गढ़ पाए और न ही एक श्रेष्ठ साधक का व्यवहार करने में समर्थ हो पाए , इसलिए तुम्हारे अब तक के सारे अध्ययन - चिंतन को बस धिक्कार योग्य ही माना जा सकता है l "
गुरु के इन वचनों को सुनकर सदाशिव स्वामी का अहंकार चूर - चूर हो गया , उन्होंने अति विनम्रता से पूछा --- " हे गुरुदेव ! हम अपना व्यक्तित्व किस भांति गढ़ें l " गुरु ने उन्हें समझाया कि तर्क - कुतर्क के माध्यम से अपनी विद्वता का प्रदर्शन मत करो l मौन रहकर अपने चिंतन को विकसित करो , और उसके अनुरूप श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण करो l
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