इस संसार में न तो सामान्य प्रेम स्वीकार है और न ही भगवान का प्रेम किसी को स्वीकार हो पाता है l इस अहंकारी संसार ने कृष्ण की दीवानी मीरा को जहर दे दिया , ईसा को सूली पर चढ़ा दिया क्योंकि गणित से चलने वाला संसार इस प्रेम को समझ नहीं पाता l लोग तो भगवान को दीवारों के भीतर कैद कर के रखना चाहते हैं लेकिन भगवान कहते हैं -- मुझे छल - कपट पसंद नहीं है , ह्रदय को सरल और पवित्र बनाओ , ईमानदारी और विवेकपूर्ण ढंग से कर्तव्य पालन करो , फिर मैं स्वयं तुम्हारा ध्यान करूँगा --- इस सत्य को समझाने वाली एक कथा है --------
नारदजी भगवान के परम भक्त हैं , उन्होंने भगवान को ध्यानमग्न देखकर लक्ष्मीजी से इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा --- वे पृथ्वीवासी अपने सबसे बड़े भक्त का ध्यान कर रहे हैं l नारदजी परेशान हुए कि उनसे बड़ा भक्त कौन है ? कहते हैं कि नारदजी श्री हरि का मन हैं , वे गाँव के बाहरी रास्ते से निकल रहे थे कि चमड़े की तीव्र दुर्गन्ध , पशु चर्म से घिरा , मैले - कुचैले वस्त्र में चमार दिखाई दिया l वह पसीने में लथपथ चमड़े की सफाई में व्यस्त था l नारदजी समझ गए , यही विष्णु का परम भक्त है l दूर खड़े होकर वे उसका कार्य देखने लगे , सोच रहे थे अब ये मंदिर में या घर में भगवान का नाम स्मरण करेगा l
चमड़े का ढेर साफ़ करते - करते शाम हो गई l नारदजी को बहुत क्रोध आ रहा था कि ऐसा भी कोई भक्त होता है l उनके अंत:करण ने कहा , थोड़ी देर और रुक कर इसकी गतिविधि देखो l
चमार तो ध्यानमग्न होकर अपना काम कर रहा था l जब रात होने लगी तो उसने जितना चमड़ा साफ किया था उसे एक गठरी में बाँधा और जो साफ न हो पाया उसे एक ओर समेट कर रखा l फिर एक मैला कपडा लेकर सिर से पैर तक अपने पसीने को पोंछकर घुटने के बल बैठ गया और हाथ जोड़कर भाव - विभोर हो कहने लगा --- प्रभो ! मुझे क्षमा करना , मैं बिना पढ़ा - लिखा चमार आपकी पूजा करने का ढंग भी नहीं जनता l मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि मुझे कल भी ऐसी सुमति देना कि आज की तरह ही आपके द्वारा दी गई जानकारी को ईमानदारी के साथ पूर्ण कर सकूँ l " नारदजी ने देखा भगवान विष्णु उसके समीप खड़े मुस्करा रहे हैं , वे बोले --- " मुनिराज ! समझ में आया इस भक्त की उपासना की श्रेष्ठता का रहस्य ?
मनुष्य का जन्म कहाँ , किस कुल में होता है , इस पर उसका कोई वश नहीं है लेकिन वह जहाँ , जिस भी क्षेत्र में है ईमानदारी से कर्तव्यपालन कर के ईश्वर का प्रेम पा सकता है l
नारदजी भगवान के परम भक्त हैं , उन्होंने भगवान को ध्यानमग्न देखकर लक्ष्मीजी से इसका कारण पूछा तो उन्होंने कहा --- वे पृथ्वीवासी अपने सबसे बड़े भक्त का ध्यान कर रहे हैं l नारदजी परेशान हुए कि उनसे बड़ा भक्त कौन है ? कहते हैं कि नारदजी श्री हरि का मन हैं , वे गाँव के बाहरी रास्ते से निकल रहे थे कि चमड़े की तीव्र दुर्गन्ध , पशु चर्म से घिरा , मैले - कुचैले वस्त्र में चमार दिखाई दिया l वह पसीने में लथपथ चमड़े की सफाई में व्यस्त था l नारदजी समझ गए , यही विष्णु का परम भक्त है l दूर खड़े होकर वे उसका कार्य देखने लगे , सोच रहे थे अब ये मंदिर में या घर में भगवान का नाम स्मरण करेगा l
चमड़े का ढेर साफ़ करते - करते शाम हो गई l नारदजी को बहुत क्रोध आ रहा था कि ऐसा भी कोई भक्त होता है l उनके अंत:करण ने कहा , थोड़ी देर और रुक कर इसकी गतिविधि देखो l
चमार तो ध्यानमग्न होकर अपना काम कर रहा था l जब रात होने लगी तो उसने जितना चमड़ा साफ किया था उसे एक गठरी में बाँधा और जो साफ न हो पाया उसे एक ओर समेट कर रखा l फिर एक मैला कपडा लेकर सिर से पैर तक अपने पसीने को पोंछकर घुटने के बल बैठ गया और हाथ जोड़कर भाव - विभोर हो कहने लगा --- प्रभो ! मुझे क्षमा करना , मैं बिना पढ़ा - लिखा चमार आपकी पूजा करने का ढंग भी नहीं जनता l मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि मुझे कल भी ऐसी सुमति देना कि आज की तरह ही आपके द्वारा दी गई जानकारी को ईमानदारी के साथ पूर्ण कर सकूँ l " नारदजी ने देखा भगवान विष्णु उसके समीप खड़े मुस्करा रहे हैं , वे बोले --- " मुनिराज ! समझ में आया इस भक्त की उपासना की श्रेष्ठता का रहस्य ?
मनुष्य का जन्म कहाँ , किस कुल में होता है , इस पर उसका कोई वश नहीं है लेकिन वह जहाँ , जिस भी क्षेत्र में है ईमानदारी से कर्तव्यपालन कर के ईश्वर का प्रेम पा सकता है l
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