' मन की वृत्तियों का स्वार्थ प्रधान हो जाना ही पाप है '----- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
आचार्य श्री ने लिखा है --- ' चेतना परिष्कार किए बिना , अपनी सोच बदले बिना -- बाहर के सारे परिवर्तन निरर्थक कहे जा सकते हैं l उपासना तभी सार्थक है , जब उसके साथ श्रेष्ठ कर्म जुड़ें l मात्र पूजा - उपचार तो बहिरंग का कर्मकांड भर है l यदि लोगों के ह्रदय छल - कपट , पाखंड , द्वेष आदि दुर्भावों से भरे रहें , तो उससे अद्रश्य लोक एक प्रकार से आध्यात्मिक दुर्गन्ध से भर जाते हैं l पाप वृत्तियों के कारण सूक्ष्म लोकों का वातावरण गन्दा हो जाने से युद्ध , महामारी , दरिद्रता , अर्थ संकट , दैवी प्रकोप आदि उपद्रवों का आविर्भाव होता है l
लेकिन जब मनुष्य के मन में सद्वृत्तियाँ रहती हैं , तो उनकी सुगंध से दिव्यलोक भरा - पूरा रहता है और जनता की सद्भावनाओं के फलस्वरूप ईश्वरीय कृपा की , सुख शांति की वर्षा होती है l
उनका कहना था ---- ' हम सब एक पिता के पुत्र हैं , इसलिए दूसरों को दुखी देखकर प्रसन्न होना एक जघन्य कर्म है l '
आचार्य श्री ने लिखा है --- ' चेतना परिष्कार किए बिना , अपनी सोच बदले बिना -- बाहर के सारे परिवर्तन निरर्थक कहे जा सकते हैं l उपासना तभी सार्थक है , जब उसके साथ श्रेष्ठ कर्म जुड़ें l मात्र पूजा - उपचार तो बहिरंग का कर्मकांड भर है l यदि लोगों के ह्रदय छल - कपट , पाखंड , द्वेष आदि दुर्भावों से भरे रहें , तो उससे अद्रश्य लोक एक प्रकार से आध्यात्मिक दुर्गन्ध से भर जाते हैं l पाप वृत्तियों के कारण सूक्ष्म लोकों का वातावरण गन्दा हो जाने से युद्ध , महामारी , दरिद्रता , अर्थ संकट , दैवी प्रकोप आदि उपद्रवों का आविर्भाव होता है l
लेकिन जब मनुष्य के मन में सद्वृत्तियाँ रहती हैं , तो उनकी सुगंध से दिव्यलोक भरा - पूरा रहता है और जनता की सद्भावनाओं के फलस्वरूप ईश्वरीय कृपा की , सुख शांति की वर्षा होती है l
उनका कहना था ---- ' हम सब एक पिता के पुत्र हैं , इसलिए दूसरों को दुखी देखकर प्रसन्न होना एक जघन्य कर्म है l '
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