मालवीय जी एक प्रसिद्ध सनातन धर्मी माने जाते थे l वे धर्म भक्त , देशभक्त और समाज - भक्त होने के साथ ही सुधारक भी थे l पर उनके सुधार कार्यों में अन्य लोगों से कुछ अंतर था l अन्य सुधारक जहाँ समाज से विद्रोह , संघर्ष करने लग जाते हैं वहां मालवीय जी समाज से मिलकर चलने के पक्षपाती थे l वे सुधार अवश्य करते थे जैसे उन्होंने स्वयं काशी में गंगातट पर बैठकर चारों वर्णों के लोगों को ---- यहाँ तक कि चाण्डालों को भी मन्त्रों की दीक्षा दी l जब वे नासिक गए तो गोदावरी के तट पर हरिजनों को दीक्षा दी l -- पर उन्होंने यह कार्य लोगों को समझा - बुझा कर और राजी कर के ही किया l
मालवीय जी का मत था कि समाज से विद्रोह कर के अथवा उससे पृथक होकर अपने नए रास्ते पर चलने से कोई ठोस कार्य नहीं कर सकते l उस अवस्था में समाज हमारी बात पर ध्यान ही नहीं देगा वरन उल्टा उसका विरोध ही करेगा l जिससे सुधार का उद्देश्य कुछ भी पूरा न हो सकेगा l
यही बात उन्होंने अपने भतीजे कृष्णकांत मालवीय को लिखी थी , जब उन्होंने विधवाओं की समस्या पर एक लेख ' अभ्युदय ' में लिखा l उसकी कई बातें मालवीय जी को अपने सिद्धांतों के विपरीत जान पड़ीं और उन्होंने कृष्णकांत जी को एक पत्र द्वारा उनकी भर्त्सना करते हुए लिखा ---- " तुम समाज का हित करना चाहते हो , समाज की सेवा करना चाहते हो , किन्तु समाज कभी तुम्हारी सेवा स्वीकार नहीं करेगा --- तुमको सेवा का अवसर ही नहीं देगा l यदि तुम मर्म की बातों में समाज की मर्यादा का पालन नहीं करोगे और समाज को मर्मवेधी वचन प्रकट रूप में कहकर दुखित और लज्जित करोगे l ------ सत्कार्य का उत्साह प्रशंसनीय है , किन्तु तभी जब वह मर्यादा के भीतर रहे l यदि उत्साह की बाढ़ में विवेक और विचार को बह जाने दोगे तो समाज का कुछ भी उपकार न कर सकोगे l "
यही कारण था कि मालवीय जी ने सुधार के कार्यों में कभी जल्दबाजी नहीं की l उनका कहना था कि जब हम समाज का सुधार करना चाहते हैं , उसके कल्याण के लिए प्रयत्न कर रहे हैं तो उसके साथ रहकर ही वैसा किया जा सकता है l समाज से लड़कर , उसकी निंदा , बुराई कर के तो और भी बिगाड़ होगा , सुधार की आशा कैसे की जा सकती है ?
मालवीय जी का मत था कि समाज से विद्रोह कर के अथवा उससे पृथक होकर अपने नए रास्ते पर चलने से कोई ठोस कार्य नहीं कर सकते l उस अवस्था में समाज हमारी बात पर ध्यान ही नहीं देगा वरन उल्टा उसका विरोध ही करेगा l जिससे सुधार का उद्देश्य कुछ भी पूरा न हो सकेगा l
यही बात उन्होंने अपने भतीजे कृष्णकांत मालवीय को लिखी थी , जब उन्होंने विधवाओं की समस्या पर एक लेख ' अभ्युदय ' में लिखा l उसकी कई बातें मालवीय जी को अपने सिद्धांतों के विपरीत जान पड़ीं और उन्होंने कृष्णकांत जी को एक पत्र द्वारा उनकी भर्त्सना करते हुए लिखा ---- " तुम समाज का हित करना चाहते हो , समाज की सेवा करना चाहते हो , किन्तु समाज कभी तुम्हारी सेवा स्वीकार नहीं करेगा --- तुमको सेवा का अवसर ही नहीं देगा l यदि तुम मर्म की बातों में समाज की मर्यादा का पालन नहीं करोगे और समाज को मर्मवेधी वचन प्रकट रूप में कहकर दुखित और लज्जित करोगे l ------ सत्कार्य का उत्साह प्रशंसनीय है , किन्तु तभी जब वह मर्यादा के भीतर रहे l यदि उत्साह की बाढ़ में विवेक और विचार को बह जाने दोगे तो समाज का कुछ भी उपकार न कर सकोगे l "
यही कारण था कि मालवीय जी ने सुधार के कार्यों में कभी जल्दबाजी नहीं की l उनका कहना था कि जब हम समाज का सुधार करना चाहते हैं , उसके कल्याण के लिए प्रयत्न कर रहे हैं तो उसके साथ रहकर ही वैसा किया जा सकता है l समाज से लड़कर , उसकी निंदा , बुराई कर के तो और भी बिगाड़ होगा , सुधार की आशा कैसे की जा सकती है ?
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