हमारे पुराणों की कथाएं हमें नीति की शिक्षा देती हैं , जीवन जीना सिखाती हैं l एक कथा है ----- समुद्र मंथन होना था , इस मंथन से अमृत निकाल कर पीने से देवता अमर हो जाते लेकिन यह कार्य अकेले देवताओं के वश का नहीं था l सब देवता भगवान विष्णु के पास गए l तब विष्णु भगवान ने देवताओं को समझाते हुए कहा --- देवताओं ! कोई भी बड़ा कार्य करना हो तो सबसे चाहे वे शत्रु ही क्यों न हों , सबसे मेल - मिलाप कर लेना चाहिए l समाज की सर्वांगीण उन्नति तथा सुख - शांति ही मुख्य लक्ष्य है l संकट काल को मैत्री पूर्ण भाव से व्यतीत करना चाहिए
देवताओं ने असुरों के राजा बलि से मंत्रणा की , दोनों में समझौता हुआ l मंदराचल पर्वत की रई और वासुकि नाग की नेती ( रस्सी के रूप में ) समुद्र मंथन को उद्दत हुए l बिना आधार के पर्वत समुद्र में डूबने लगा तब स्वयं भगवान ने कच्छप रूप में उसे अपनी पीठ पर धारण किया l
देवता लोग पूँछ की तरफ रहे और असुर वासुकि नाग के मुंह की और थे l इस प्रकार सबके मेल - जोल से , सबके सहयोग से समुद्र मंथन होने लगा l सबसे पहले उग्र विष निकला , उसकी ज्वाला से सब जलने लगे तब देवता और दैत्यों ने शिवजी से प्रार्थना की कि वे इस विष का पान करें l वे भोले बाबा हैं उन्होंने हलाहल विष को अपने कंठ में धारण किया और नीलकंठ कहलाए l
इसके बाद कामधेनु निकली जिसे देवताओं ने लिया , उच्चै :श्रवा घोड़ा दैत्यराज बलि को दिया गया , ऐरावत हाथी इंद्र ने लिया , कौस्तुभ मणि भगवान ने ग्रहण की l समुद्र मंथन में रम्भा अप्सरा निकली जो देवलोक चली गई l फिर लक्ष्मी जी प्रकट हुईं , उन्होंने विष्णु भगवान को वरण किया l चन्द्रमा , पारिजात वृक्ष तथा शंख उत्पन्न हुआ l सबसे अंत में धन्वन्तरि वैद्द्य अमृत का घट लिए प्रकट हुए l दैत्यों ने अमृत घट देखा तो उसे झपट कर ले गए l और उसे पीने के लिए आपस में लड़ने लगे l
अमृत दैत्यों के हाथ में देख भगवान ने विचार किया असुर तो जन्म से ही क्रूर स्वाभाव के हैं , इन्हे अमृत पिलाना सांप को दूध पिलाना है l दुष्टता का पोषण खतरनाक है , दुष्प्रवृतियां कहीं भी हों उन को कुचला जाना चाहिए , यदि ऐसा नहीं किया गया तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा l सत्प्रवृत्तियाँ अर्थात देवत्व ही अमरता का अधिकारी है l दुष्टता का प्रतिरोध ईश्वरीय कार्य है l
विष्णु भगवान ने विश्व मोहिनी रूप धारण किया , दैत्य उनके सौंदर्य में मदहोश हो गए और मोहिनी रूप धारी भगवान ने देवताओं को अमृत पिला दिया l
देवता और दैत्य दोनों ने ही एक ही कर्म व एक सा परिश्रम किया लेकिन देवताओं में सद्गुण थे , सद्प्रवृति थी इसलिए ईश्वर की कृपा उन्हें अमृत रूप में मिली l
देवताओं ने असुरों के राजा बलि से मंत्रणा की , दोनों में समझौता हुआ l मंदराचल पर्वत की रई और वासुकि नाग की नेती ( रस्सी के रूप में ) समुद्र मंथन को उद्दत हुए l बिना आधार के पर्वत समुद्र में डूबने लगा तब स्वयं भगवान ने कच्छप रूप में उसे अपनी पीठ पर धारण किया l
देवता लोग पूँछ की तरफ रहे और असुर वासुकि नाग के मुंह की और थे l इस प्रकार सबके मेल - जोल से , सबके सहयोग से समुद्र मंथन होने लगा l सबसे पहले उग्र विष निकला , उसकी ज्वाला से सब जलने लगे तब देवता और दैत्यों ने शिवजी से प्रार्थना की कि वे इस विष का पान करें l वे भोले बाबा हैं उन्होंने हलाहल विष को अपने कंठ में धारण किया और नीलकंठ कहलाए l
इसके बाद कामधेनु निकली जिसे देवताओं ने लिया , उच्चै :श्रवा घोड़ा दैत्यराज बलि को दिया गया , ऐरावत हाथी इंद्र ने लिया , कौस्तुभ मणि भगवान ने ग्रहण की l समुद्र मंथन में रम्भा अप्सरा निकली जो देवलोक चली गई l फिर लक्ष्मी जी प्रकट हुईं , उन्होंने विष्णु भगवान को वरण किया l चन्द्रमा , पारिजात वृक्ष तथा शंख उत्पन्न हुआ l सबसे अंत में धन्वन्तरि वैद्द्य अमृत का घट लिए प्रकट हुए l दैत्यों ने अमृत घट देखा तो उसे झपट कर ले गए l और उसे पीने के लिए आपस में लड़ने लगे l
अमृत दैत्यों के हाथ में देख भगवान ने विचार किया असुर तो जन्म से ही क्रूर स्वाभाव के हैं , इन्हे अमृत पिलाना सांप को दूध पिलाना है l दुष्टता का पोषण खतरनाक है , दुष्प्रवृतियां कहीं भी हों उन को कुचला जाना चाहिए , यदि ऐसा नहीं किया गया तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा l सत्प्रवृत्तियाँ अर्थात देवत्व ही अमरता का अधिकारी है l दुष्टता का प्रतिरोध ईश्वरीय कार्य है l
विष्णु भगवान ने विश्व मोहिनी रूप धारण किया , दैत्य उनके सौंदर्य में मदहोश हो गए और मोहिनी रूप धारी भगवान ने देवताओं को अमृत पिला दिया l
देवता और दैत्य दोनों ने ही एक ही कर्म व एक सा परिश्रम किया लेकिन देवताओं में सद्गुण थे , सद्प्रवृति थी इसलिए ईश्वर की कृपा उन्हें अमृत रूप में मिली l
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