अखण्ड ज्योति जून 1992 में प्रकाशित एक लेख का अंश ----
भारतीय संस्कृति कितनी विशाल है , इस महासागर में भिन्न - भिन्न सभ्यताएं , संस्कृतियां आदि आते और समाते चले गए l कवीन्द्र रविन्द्र ने एक काव्य द्वारा इस भाव को व्यक्त करते हुए बंगला कविता लिखी थी , उसका भावानुवाद करते हुए श्री रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक ' संस्कृति के चार अध्याय ' में लिखा है ---- " भारत देश महा मानवता का पारावार है l इस पवित्र तीर्थ में , किसी को भी ज्ञात नहीं कि किसके आव्हान पर मनुष्यता की कितनी धाराएं दुर्वार वेग से बहती हुईं कहाँ - कहाँ से आईं और इस महासमुद्र में मिलकर खो गईं ------ समय - समय पर जो लोग रक्त की धारा बहाते हुए एवं उन्माद - उत्साह में विजय के गीत गाते हुए रेगिस्तान को पार कर , पर्वतों को लांघकर इस देश में आये थे , उनमे से किसी का भी अब अलग कोई अस्तित्व नहीं है l वे सब मेरे इस विराट शरीर में विद्दमान हैं -- l "
आचार्य श्री ने लिखा है ---- ' आर्य ' कोई जाति या नस्ल विशेष का नाम नहीं है l ' आर्य ' का अर्थ होता है -- श्रेष्ठ l भारतवर्ष में यह भाव कभी पनपा ही नहीं कि ' रेस - थ्योरी ' के अनुसार कौन हमारी जाति का है , कौन नहीं l जो इस पुण्यतोया भगीरथी के प्रवाह में जुड़ा वह गन्दा नाला हो या पवित्र यमुना नदी , सभी इसमें आत्मसात हो आर्य पुरुष कहलाये l '
किसी भी संस्कृति , सभ्यता , धर्म या समाज के पतन का कारण होता है उसमे विकृतियों का प्रवेश तथा इस कारण उसकी जीवनी शक्ति गिर जाना l पाश्चात्य विद्वान् तथा इतिहासकार लिखते हैं --- हिन्दू समाज अच्छाइयां छोड़ता रहा व वर्ण जातिभेद से लेकर अछूत समस्या , नारी समस्या , शुद्धि समस्या जैसी कई समस्याओं को पैदा कर के अपने लिए पतन की राह चुन ली l ----- भारतवर्ष राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम होता चला गया l इसके आध्यात्मिक तत्वदर्शन में ऐसी विकृतियां समाहित होती चली गईं जिसने जनमानस को दिग्भ्रमित किया l भाग्यवाद , ईश्वर दर्शन को अपनाने लगे इच्छा सर्वोपरि , अकर्मण्यवाद , पलायनवाद जैसे तत्वों ने जन मानस को मूर्छित कर दिया है l कालांतर में अंग्रेजी शिक्षा के साथ लोग अपने गौरव पूर्ण अतीत को भूलकर उस भोगपरायण दर्शन को अपनाने लगे जिससे आज सारा पश्चिम दुखी है l आचार्य श्री लिखते हैं -- अनुयायिओं की संख्या बढ़ाने के स्थान पर जनमानस का परिष्कार अधिक जरुरी है l
भारतीय संस्कृति कितनी विशाल है , इस महासागर में भिन्न - भिन्न सभ्यताएं , संस्कृतियां आदि आते और समाते चले गए l कवीन्द्र रविन्द्र ने एक काव्य द्वारा इस भाव को व्यक्त करते हुए बंगला कविता लिखी थी , उसका भावानुवाद करते हुए श्री रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक ' संस्कृति के चार अध्याय ' में लिखा है ---- " भारत देश महा मानवता का पारावार है l इस पवित्र तीर्थ में , किसी को भी ज्ञात नहीं कि किसके आव्हान पर मनुष्यता की कितनी धाराएं दुर्वार वेग से बहती हुईं कहाँ - कहाँ से आईं और इस महासमुद्र में मिलकर खो गईं ------ समय - समय पर जो लोग रक्त की धारा बहाते हुए एवं उन्माद - उत्साह में विजय के गीत गाते हुए रेगिस्तान को पार कर , पर्वतों को लांघकर इस देश में आये थे , उनमे से किसी का भी अब अलग कोई अस्तित्व नहीं है l वे सब मेरे इस विराट शरीर में विद्दमान हैं -- l "
आचार्य श्री ने लिखा है ---- ' आर्य ' कोई जाति या नस्ल विशेष का नाम नहीं है l ' आर्य ' का अर्थ होता है -- श्रेष्ठ l भारतवर्ष में यह भाव कभी पनपा ही नहीं कि ' रेस - थ्योरी ' के अनुसार कौन हमारी जाति का है , कौन नहीं l जो इस पुण्यतोया भगीरथी के प्रवाह में जुड़ा वह गन्दा नाला हो या पवित्र यमुना नदी , सभी इसमें आत्मसात हो आर्य पुरुष कहलाये l '
किसी भी संस्कृति , सभ्यता , धर्म या समाज के पतन का कारण होता है उसमे विकृतियों का प्रवेश तथा इस कारण उसकी जीवनी शक्ति गिर जाना l पाश्चात्य विद्वान् तथा इतिहासकार लिखते हैं --- हिन्दू समाज अच्छाइयां छोड़ता रहा व वर्ण जातिभेद से लेकर अछूत समस्या , नारी समस्या , शुद्धि समस्या जैसी कई समस्याओं को पैदा कर के अपने लिए पतन की राह चुन ली l ----- भारतवर्ष राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम होता चला गया l इसके आध्यात्मिक तत्वदर्शन में ऐसी विकृतियां समाहित होती चली गईं जिसने जनमानस को दिग्भ्रमित किया l भाग्यवाद , ईश्वर दर्शन को अपनाने लगे इच्छा सर्वोपरि , अकर्मण्यवाद , पलायनवाद जैसे तत्वों ने जन मानस को मूर्छित कर दिया है l कालांतर में अंग्रेजी शिक्षा के साथ लोग अपने गौरव पूर्ण अतीत को भूलकर उस भोगपरायण दर्शन को अपनाने लगे जिससे आज सारा पश्चिम दुखी है l आचार्य श्री लिखते हैं -- अनुयायिओं की संख्या बढ़ाने के स्थान पर जनमानस का परिष्कार अधिक जरुरी है l
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