भ्रष्टाचार और व्यभिचार मनुष्य को पाप की ओर धकेलते हैं l पाप का अर्थ हर वह कर्म , जो हमारी चेतना को नीचे गिराए और उस कर्म को करने पर अपार द्वंद एवं बेचैनी पैदा हो जाये तथा करने के पश्चात् अपराध बोध लगने लगे l व्यभिचारी का पाप पूरी पीढ़ी को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है l उसकी संतान भी उसी आत्मघाती डगर पर बढ़ती है l
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " व्यभिचार ने पीढ़ियों को इतना खोखला कर दिया है कि कोई श्रेष्ठ आत्मा ऐसे परिवार में जन्म लेना नहीं चाहतीं l इन पीढ़ियों में केवल ऐसी जीवात्माएं आकृष्ट होती हैं , जिनकी अभिरुचि इसी प्रकार की होती है l अत: ऐसे परिवार में ऐसी जीवात्माओं का जमघट लग जाता है , जिनके कर्म मिलकर न केवल स्वयं एवं परिवार को नष्ट करते हैं , बल्कि वातावरण को भी दूषित करते हैं l पश्चिम का उन्मुक्त एवं उच्छृंखल यौनाचार हमारे समाज में असाध्य रोग के समान संक्रमित हो चुका है l "
जरुरी है मनुष्य सदाचरण करे l महान आत्माएं पवित्र कोख से जन्म लेती हैं !
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " व्यभिचार ने पीढ़ियों को इतना खोखला कर दिया है कि कोई श्रेष्ठ आत्मा ऐसे परिवार में जन्म लेना नहीं चाहतीं l इन पीढ़ियों में केवल ऐसी जीवात्माएं आकृष्ट होती हैं , जिनकी अभिरुचि इसी प्रकार की होती है l अत: ऐसे परिवार में ऐसी जीवात्माओं का जमघट लग जाता है , जिनके कर्म मिलकर न केवल स्वयं एवं परिवार को नष्ट करते हैं , बल्कि वातावरण को भी दूषित करते हैं l पश्चिम का उन्मुक्त एवं उच्छृंखल यौनाचार हमारे समाज में असाध्य रोग के समान संक्रमित हो चुका है l "
जरुरी है मनुष्य सदाचरण करे l महान आत्माएं पवित्र कोख से जन्म लेती हैं !
No comments:
Post a Comment