पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने वाङ्मय ' संस्कृति - संजीवनी श्रीमद भागवत एवं गीता ' में लिखा है ---------- किसी भी कार्य के पीछे हमारी भावना क्या है , इसका महत्व है l यदि हम अपने क्षुद्र अहंकार की पूर्ति के लिए और अपने कहलाने वाले कुछ व्यक्तियों को सुख पहुँचाने के लिए तथा दूसरों को दुःख पहुँचाने की भावना से कर्म करते हैं तो हम कभी सफल नहीं हो सकते l
यदि हमारी भावनाएं कलुषित हैं तथा हमारे कर्मों के मूल में अपना लाभ तथा दूसरों की हानि करने की वृत्ति छिपी हुई है तो हम दिखावे के लिए कितने ही व्यवस्थित और कठिन कार्य करें मनवांछित परिणाम नहीं पा सकते l मात्र क्रिया ही सब कुछ नहीं उसके मूल में छिपी भावना और विचारणा का भी महत्व है l
इस संबंध में में संस्कृत का एक श्लोक है जिसका अर्थ है ---- मनुष्य अपने प्राण , धन , कर्म , मन और वाणी आदि से शरीर एवं पुत्र आदि के लिए जो कुछ करता है -- वह व्यर्थ ही होता है क्योंकि उसके मूल में भेद बुद्धि बनी रहती है परन्तु जब मनुष्य द्वारा भगवान के लिए कुछ किया जाता है , तब वह सब भेदभाव से रहित होने के कारण शरीर , पुत्र और समस्त संसार के लिए सफल हो जाता है l
भगवान के लिए कर्म करने का अर्थ है --- सबके हित की कामना से , संकीर्णता से ऊँचे उठकर व्यापक लोक हित को ध्यान में रखते हुए कर्म करना l
रावण वेद , शास्त्र का ज्ञाता , बहुत विद्वान् था , कहते हैं उसने काल को भी पाटी से बाँध रखा था l रावण के बारे में बताते हुए भगवान कृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं ---- जिसका त्रिकूट ही दुर्ग था , समुद्र जिसकी खाई थी , राक्षस जिसके योद्धा सिपाही थे और कुबेर का वैभव जिसका धन था और शुक्राचार्य द्वारा निर्धारित जिसकी नीति थी , वह रावण भी दैव के वश होकर विनष्ट हो गया l
रावण की भावना पवित्र नहीं थी , वह अत्याचारी था , परायी स्त्री का हरण किया था l उसका अहंकार उसे ले डूबा l
यदि हमारी भावनाएं कलुषित हैं तथा हमारे कर्मों के मूल में अपना लाभ तथा दूसरों की हानि करने की वृत्ति छिपी हुई है तो हम दिखावे के लिए कितने ही व्यवस्थित और कठिन कार्य करें मनवांछित परिणाम नहीं पा सकते l मात्र क्रिया ही सब कुछ नहीं उसके मूल में छिपी भावना और विचारणा का भी महत्व है l
इस संबंध में में संस्कृत का एक श्लोक है जिसका अर्थ है ---- मनुष्य अपने प्राण , धन , कर्म , मन और वाणी आदि से शरीर एवं पुत्र आदि के लिए जो कुछ करता है -- वह व्यर्थ ही होता है क्योंकि उसके मूल में भेद बुद्धि बनी रहती है परन्तु जब मनुष्य द्वारा भगवान के लिए कुछ किया जाता है , तब वह सब भेदभाव से रहित होने के कारण शरीर , पुत्र और समस्त संसार के लिए सफल हो जाता है l
भगवान के लिए कर्म करने का अर्थ है --- सबके हित की कामना से , संकीर्णता से ऊँचे उठकर व्यापक लोक हित को ध्यान में रखते हुए कर्म करना l
रावण वेद , शास्त्र का ज्ञाता , बहुत विद्वान् था , कहते हैं उसने काल को भी पाटी से बाँध रखा था l रावण के बारे में बताते हुए भगवान कृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं ---- जिसका त्रिकूट ही दुर्ग था , समुद्र जिसकी खाई थी , राक्षस जिसके योद्धा सिपाही थे और कुबेर का वैभव जिसका धन था और शुक्राचार्य द्वारा निर्धारित जिसकी नीति थी , वह रावण भी दैव के वश होकर विनष्ट हो गया l
रावण की भावना पवित्र नहीं थी , वह अत्याचारी था , परायी स्त्री का हरण किया था l उसका अहंकार उसे ले डूबा l
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