श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं ---- ' मैं काल हूँ l '
इसे समझाते हुए पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने लिखा है --- जीवन के साथ तीन सत्य अनिवार्य रूप से जुड़े हैं ---- काल , कर्म और स्थान l प्रत्येक व्यक्ति निश्चित स्थान में निश्चित कर्म करता है l वह अच्छा करता है या बुरा करता है यह उसके स्वाभाव , उसकी भावना पर निर्भर है l
जो कर्म हमने किये उनका परिपाक समय के गर्भ में होता है l इनका परिपाक हो जाने पर पुन: एक निश्चित स्थान पर काल उनका परिणाम प्रस्तुत करता है l
व्यक्तिगत जीवन में यदि कर्म अशुभ होता है तो काल रोग , शोक , पीड़ा व पतन बनकर प्रकट होता है l यदि सामूहिक जीवन में अशुभ कर्म होता है तो काल प्राकृतिक आपदाओं , युद्ध की विभीषिकाओं का रूप लेकर आता है l ऐसी स्थिति में काल बनता है --- महामारी , भूकंप , बाढ़ , सूखा , अकाल और ऐसे ही अनेक उपद्रव बन जाता है l
यदि कर्म शुभ हों तो काल व्यक्तिगत जीवन में सुख - समृद्धि , शांति - उन्नति बनकर आता है l यही स्थिति सामूहिक जीवन में हो तो सुख - समृद्धि , शांति व उन्नति अनेक रूप लेकर प्रकट होती है l
महाभारत में स्वयं परमेश्वर कुरुक्षेत्र में महायुद्ध का दंड लेकर प्रकट हुए हैं l भगवान अर्जुन से कहते हैं --- व्यक्ति अथवा समूह को कोई परिस्थिति या घटनाक्रम नहीं मारता l उसे मारता है , उसका कर्म l भीष्म एवं द्रोण अपने व्यक्तिगत जीवन में भले ही अच्छे हों , पर दुर्योधन के अनगिनत दुष्कर्मों के साथ उनकी मौन स्वीकृति थी l इसी मौन स्वीकृति ने उसे दंड का भागीदार बना दिया l यही स्थिति अन्यों की भी है l
जीवन में शुभ और अशुभ के लिए प्रत्यक्ष में जिम्मेदार कोई भी हो , पर यथार्थ में उत्तरदायी होते हैं व्यक्ति के कर्म l इस कर्म के अनुसार ही काल नियत समय व नियत स्थान पर परिस्थितियों व घटनाक्रम का सृजन कर देता है l
आचार्य श्री लिखते हैं हम सभी को अपने कर्मों के अनुसार स्थान मिला है , साथ ही हमें नए कर्मों को करने की स्वतंत्रता है l
श्रीमदभगवद्गीता में भगवान के कहे गए ये वचन हमारी चेतना को जाग्रत करने के लिए हैं l भीष्म और द्रोण की तरह हम अत्याचार और अन्याय को चुपचाप मौन रहकर न देखें l अपनी विवेक शक्ति को जाग्रत करें , अत्याचारी अन्यायी का साथ न दें , अन्यथा काल के सामूहिक दंड से कोई नहीं बचा सकेगा l
इसे समझाते हुए पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने लिखा है --- जीवन के साथ तीन सत्य अनिवार्य रूप से जुड़े हैं ---- काल , कर्म और स्थान l प्रत्येक व्यक्ति निश्चित स्थान में निश्चित कर्म करता है l वह अच्छा करता है या बुरा करता है यह उसके स्वाभाव , उसकी भावना पर निर्भर है l
जो कर्म हमने किये उनका परिपाक समय के गर्भ में होता है l इनका परिपाक हो जाने पर पुन: एक निश्चित स्थान पर काल उनका परिणाम प्रस्तुत करता है l
व्यक्तिगत जीवन में यदि कर्म अशुभ होता है तो काल रोग , शोक , पीड़ा व पतन बनकर प्रकट होता है l यदि सामूहिक जीवन में अशुभ कर्म होता है तो काल प्राकृतिक आपदाओं , युद्ध की विभीषिकाओं का रूप लेकर आता है l ऐसी स्थिति में काल बनता है --- महामारी , भूकंप , बाढ़ , सूखा , अकाल और ऐसे ही अनेक उपद्रव बन जाता है l
यदि कर्म शुभ हों तो काल व्यक्तिगत जीवन में सुख - समृद्धि , शांति - उन्नति बनकर आता है l यही स्थिति सामूहिक जीवन में हो तो सुख - समृद्धि , शांति व उन्नति अनेक रूप लेकर प्रकट होती है l
महाभारत में स्वयं परमेश्वर कुरुक्षेत्र में महायुद्ध का दंड लेकर प्रकट हुए हैं l भगवान अर्जुन से कहते हैं --- व्यक्ति अथवा समूह को कोई परिस्थिति या घटनाक्रम नहीं मारता l उसे मारता है , उसका कर्म l भीष्म एवं द्रोण अपने व्यक्तिगत जीवन में भले ही अच्छे हों , पर दुर्योधन के अनगिनत दुष्कर्मों के साथ उनकी मौन स्वीकृति थी l इसी मौन स्वीकृति ने उसे दंड का भागीदार बना दिया l यही स्थिति अन्यों की भी है l
जीवन में शुभ और अशुभ के लिए प्रत्यक्ष में जिम्मेदार कोई भी हो , पर यथार्थ में उत्तरदायी होते हैं व्यक्ति के कर्म l इस कर्म के अनुसार ही काल नियत समय व नियत स्थान पर परिस्थितियों व घटनाक्रम का सृजन कर देता है l
आचार्य श्री लिखते हैं हम सभी को अपने कर्मों के अनुसार स्थान मिला है , साथ ही हमें नए कर्मों को करने की स्वतंत्रता है l
श्रीमदभगवद्गीता में भगवान के कहे गए ये वचन हमारी चेतना को जाग्रत करने के लिए हैं l भीष्म और द्रोण की तरह हम अत्याचार और अन्याय को चुपचाप मौन रहकर न देखें l अपनी विवेक शक्ति को जाग्रत करें , अत्याचारी अन्यायी का साथ न दें , अन्यथा काल के सामूहिक दंड से कोई नहीं बचा सकेगा l
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