बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री शरतचंद्र ने देशबंधु दास के संबंध में एक लेख ' स्मृति कथा ' वसुमती नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित कराया था जिसमे उन्होंने देशबंधु के जीवन प्रसंगों को प्रकट करते हुए लिखा था ---- " पराधीन जाति का एक बड़ा अभिशाप यह होता है कि हमको अपने मुक्ति संग्राम में विदेशियों की अपेक्षा अपने देश के लोगों से ही अधिक लड़ाई लड़नी पड़ती है l "
पराधीनता मानसिक हो तो स्थिति और भी विकट हो जाती है l मानसिक रूप से पराधीन व्यक्ति अपनी उपलब्धियों , अपने गुणों को नहीं देखता वह दूसरों की हर बात को श्रेष्ठ समझता है और ऐसे लोगों की जब भीड़ इकट्ठी हो जाती है तब वे अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं , अपनी प्राचीन उपलब्धियों को भी भूलकर विदेशियों को महत्व देते है l यह भी दुर्बुद्धि है कि जिस धरती पर जन्म लिया , जिस वायुमंडल में सांस लेकर बड़े हुए , जिस प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण में रहते हैं , उसे श्रेष्ठ न समझकर दूसरों द्वारा थोपी गई चीजों को हृदय से लगाते हैं l अपनी चीज का लाभ नहीं देखते और दूसरे के द्वारा होने वाली हानि को ख़ुशी से स्वीकारते हैं l जागरूक होने पर ही स्वार्थ में डूबी दुनिया के चित्र को समझ सकते हैं l
पराधीनता मानसिक हो तो स्थिति और भी विकट हो जाती है l मानसिक रूप से पराधीन व्यक्ति अपनी उपलब्धियों , अपने गुणों को नहीं देखता वह दूसरों की हर बात को श्रेष्ठ समझता है और ऐसे लोगों की जब भीड़ इकट्ठी हो जाती है तब वे अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं , अपनी प्राचीन उपलब्धियों को भी भूलकर विदेशियों को महत्व देते है l यह भी दुर्बुद्धि है कि जिस धरती पर जन्म लिया , जिस वायुमंडल में सांस लेकर बड़े हुए , जिस प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण में रहते हैं , उसे श्रेष्ठ न समझकर दूसरों द्वारा थोपी गई चीजों को हृदय से लगाते हैं l अपनी चीज का लाभ नहीं देखते और दूसरे के द्वारा होने वाली हानि को ख़ुशी से स्वीकारते हैं l जागरूक होने पर ही स्वार्थ में डूबी दुनिया के चित्र को समझ सकते हैं l
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