आचार्य श्री लिखते हैं --- ' महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें दोष अपना देखना चाहिए , दूसरों का नहीं l दूसरों की ओर ताक - झाँक हमें आत्मविमुख कर देती है और घोर पतन की राह पर धकेल देती है l
अपने दोषों को खोजना और दूसरों से अपनी कमियाँ - खामियाँ सुनना बहुत कठिन काम है l इन सब में हमारा अहंकार आड़े आता है l आचार्य श्री लिखते हैं --- ' मनुष्य होने के नाते हम सब से गलतियाँ होना स्वाभाविक है l हम जीवन के प्रति होश में रहें l यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है कि हमें अपनी छोटी सी गलती भी साफ - साफ दिखाई दे l भूल को स्वीकार करने का साहस हो l अगर कभी गलती हो जाये तो अपने को तथा औरों को कोसने के बजाय शांतिपूर्वक परिस्थिति व कारण की खोज करनी चाहिए तथा इसे न दोहराने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए l अपनी कमजोरी के छोटे पक्ष को , एक छोटी सी गलती को अत्यंत धैर्य और साहस के साथ सुधारने का प्रयास करना चाहिए l हमें हमारे दोष बार - बार गिराते हैं और हम गिरते हैं , पर गिरकर हमें उठना नहीं आता l हर गलती से सीख लेकर अगर हम उठ सकें तो हमारा जीवन पवित्रता को पा सकता है , यही अध्यात्म का प्रवेश द्वार है l "
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