भीष्म पितामह शरशय्या पर थे l उत्तरायण की प्रतीक्षा थी l युद्ध रुक चूका था l सभी उनके पास आते एवं उनसे धर्म का मर्म पूछते l वे सब की जिज्ञासाओं का यथोचित उत्तर देते l पाँचों पांडव व महारानी द्रोपदी भी उन्हें प्रणाम करने आये l पितामह को ऐसे शरशय्या पर लेटा देख सबका हृदय दुःखी था , पर द्रोपदी उन्हें धर्मोपदेश देते देखकर हँसने लगी l युधिष्ठिर ने उलाहना दिया --- 'ऐसे समय में यह असामाजिक आचरण क्यों ? ' तब द्रोपदी ने कहा --- मुझे सीधे पितामह से बात करने दीजिए l " पितामह ने स्नेहपूर्वक द्रोपदी से कहा कि वह अपनी बात कहे l तब द्रोपदी बोलीं --- " जब आप कौरवों के साथ राजसभा में थे व मेरी लाज लुट रही थी , तब आपका यह धर्मज्ञान कहाँ चला गया था तात ! " भीष्म बोले ---- " द्रोपदी ! तेरा असमंजस सही है l कुधान्य से मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी l उचित - अनुचित का भेद भी नहीं था l उसके एहसानों ने मेरा मुँह बंद कर दिया था l अब वह कुधान्य रक्त बनकर मेरे घावों से रिस रहा है तो धर्मोपदेश का सही समय व अधिकार मेरे पास है l " द्रोपदी का समाधान हो गया l
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