जगद्गुरु शंकराचार्य चाहते थे कि देश में चारों दिशाओं में ज्ञानक्रांति के केंद्र बने l इसके लिए समस्या धन की थी l इसलिए वे भिक्षाटन के लिए निकले थे l देश के श्रेष्ठि वर्ग ने उनसे अनेकों बार कहा कि ---' आप हमें आदेश दें , हम धन की कोई कमी नहीं पड़ने देंगे l लेकिन आचार्य ने उनके इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया और कहा ---- " यदि ज्ञान , जन के लिए हो तो धन भी जन का होना चाहिए l जनभागीदारी से जो कार्य किए जाते हैं , जन उन कार्यों को महत्व भी देता है l फिर सबके द्वार पहुँचने से ज्ञान का सहज वितरण होगा और जनसहयोग भी प्राप्त होगा l " अपने इसी प्रयास में वे पदयात्रा करते हुए एक गांव में पहुंचे l अभी जिस द्वार पर उन्होंने भिक्षा के लिए पुकारा वह झोंपड़ी एक निर्धन वृद्ध विधवा ब्राह्मणी की थी l उसके पति व पुत्र का आकस्मिक निधन हो गया था l आचार्य द्वारा भिक्षा की याचना सुनकर वह व्याकुल हो उठी l उसने अपनी पूरी झोंपड़ी खंगाल ली पर कुछ न मिला l बाहर देखा तो आचार्य अभी तक खड़े थे l व्याकुल होकर उसने कहा --- ' हे ईश्वर ! तूने मुझे इतना गरीब क्यों बनाया ? ' ईश्वर को यह उलाहना देते हुए उसने फिर से अपनी झोंपड़ी में सब तरफ ढूंढा l इस बार उसे कोने में पड़ा हुआ सूखा आंवला मिला l उसने बड़े जतन से आंवला उठा लिया और दौड़ते हुए बाहर आई और आचार्य के हाथ पर वह सूखा आंवला रख दिया l इस आंवले के साथ ही आचार्य की हथेली पर आँसू की चार बूँद गिरी l दो आँसू वृद्धा के थे और दो आचार्य के l आचार्य भावाकुल हो गए , आंवले के रूप में वृद्धा अपनी सम्पूर्ण सम्पति दान दे रही थी l ऐसी उदारता और ऐसी दरिद्रता के विरल संयोग को देखकर आचार्य विकल हो उठे l उन्होंने माता महालक्ष्मी को पुकारा --- " हे माता ! इस उदारता को संपन्नता का वरदान दो " उनके मुख से स्वत: स्तवन स्फुरित होने लगा ----- सारे वातावरण में प्रकाश छा गया l स्तवन के पूर्ण होते ही वृद्धा की झोंपड़ी में आकाश से स्वर्ण आंवलों की कनकधाराएँ बरसने लगीं l महालक्ष्मी की कृपा और आचार्य की भक्ति के सभी साक्षी बने l और आचार्य द्वारा कहा गया स्रोत --- कनकधारा स्रोत के नाम से सिद्ध स्रोत के रूप में वंदित हुआ l
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