श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --- जो मान - अपमान में , शत्रु - मित्र में तथा -सुख- दुःख आदि द्वंदों में सम है और आसक्ति से रहित है वही भक्त मुझे प्रिय है l भगवान कहते हैं --- मान - अपमान का संबंध हमारे अहं से है l अहं के कारण ही इनका अनुभव होता है l पं.श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं --- ' मान से यदि अहंकार को पोषण मिलता है , तो अपमान से अहं को चोट लगती है l इसलिए जब हम अपने अहंकार को त्याग देते हैं तो ये मान - अपमान की अनुभूतियाँ स्वत: ही विसर्जित हो जाती हैं l फिर न हम में मान पाने की लालसा बची रह जाती है और न ही हमें अपमानित होने का भय सताता है l -------- स्वामी रामतीर्थ प्रव्रज्या हेतु अमरीका गए हुए थे l उनका उद्बोधन प्रसिद्ध चिंतकों और विचारकों के मध्य हुआ तो सभी ने एक स्वर में उनके अद्भुत व्यक्तित्व और प्रकांड पांडित्य की प्रशंसा की l उद्बोधन के पश्चात् वे जिस महिला के घर रुके हुए थे , उनके घर पहुंचे और उस महिला से बोले --- " बहन ! आज ईश्वर ने इस नाचीज को बहुत प्रशंसा दिलवाई l ' कुछ दिनों उपरांत वे न्यूयार्क शहर के ब्रौंक्स क्षेत्र से गुजर रहे थे कि उनकी वेशभूषा को देखकर कुछ अराजक तत्वों की भीड़ लग गई l उनमें से कुछ उन पर छींटाकशी करने लगे तो कुछ ऐसे भी थे जो बेवजह उनके साथ दुर्व्यवहार करने लगे l घटना की खबर जब महिला को लगी तो वह कुछ साथियों को लेकर स्वामीजी को लेने पहुंची l स्वामी रामतीर्थ उसी निर्विकार भाव से बोले --- " बहन ! आप हस्तक्षेप न करो l आज ईश्वर का अपने इस भक्त को अपमान से भेंट कराने का मन है l भगवान के भक्त के लिए मान क्या और अपमान क्या ? श्रीमद्भगवद्गीता में जिस स्थितप्रज्ञ का वर्णन है , उस स्वरुप का दर्शन उनमे सबको उन क्षणों में हुआ l
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