पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " दु:संग भले ही कितना मधुर एवं सम्मोहक लगे , किन्तु उसका यथार्थ महाविष की भाँति संघातक होता है l " आचार्य श्री लिखते हैं ----- " यदि किसी दुराचारी को सत्संग और सत्पुरुषों का साथ मिल जाए तो उसका भी कल्याण हो जाता है l " लेकिन सत्संग चाहे वह सत्पुरुषों का हो या सद्विचारों का , ईश्वर की कृपा से ही मिलता है l ---------------------- एक डाकू फकीरों के ---दरवेशों के वेश में डाके डालता था l अपना हिस्सा वह गरीबों में बाँट देता था l हाथ में माला लिए जपता रहता l एक बार उसके दल ने काफिला लूटा l एक व्यापारी के हाथ में ढेर सारा पैसा था l लूट चल रही थी l उसने फकीर को देखा l उसके पास सारा धन लाकर रख दिया l काफिला लुट जाने के बाद जब वह धन लेने पहुंचा तो देखा कि वहां तो लूट का माल बांटा जा रहा है l सरदार वही था जो फकीर ---दरवेश बना हुआ था , उसी के पास व्यापारी का धन था l व्यापारी बोला ---- " हमने तो आपको दरवेश समझा था l आप तो कुछ और ही निकले l हमने डाकुओं के सरदार पर नहीं , फकीर पर , खुदा के बन्दे पर विश्वास किया था l आदमी का भरोसा साधु , फकीर पर से उठना नहीं चाहिए l यह धन आप रखिए , पर आपसे एक निवेदन है कि आप दरवेश के वेश में मत लूटिए l नहीं तो लोगों का विश्वास ही इस वेश पर से उठ जायेगा l वह डाकू तत्काल ही वास्तव में फ़क़ीर बन गया l उसके बाद उसने कभी डाका नहीं डाला l दुराचारी भी सन्मार्ग मिलने पर कल्याण पा जाता है l
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