धार्मिक कर्मकांडों और अपने ईश्वर की पूजा की सार्थकता तभी है जब हम उनके बताए मार्ग पर चलें अन्यथा ' मुँह में राम बगल में छुरी ' की उक्ति की सत्यता स्पष्ट होती है l मनुष्य जैसा आचरण करता है वैसा ही संदेश प्रकृति में जाता है l इसका परिणाम यह होता है कि जो बात परदे के पीछे होती है , प्रकृति उसे प्रकट कर देती है l जैसे संसार का एक विशाल जन समुदाय अपने - अपने भगवान की पूजा अपने तरीके से करता है लेकिन सभी धर्मग्रंथों में मनुष्य के लिए जिन मानवीय मूल्यों को अपनाने और सन्मार्ग पर चलने की बात कही गई है उसे कोई नहीं मानता l लड़ाई - झगड़ा , अपराध , पापकर्म , संवेदनहीनता , भ्रष्टाचार , शोषण , अत्याचार , अन्याय का ही बोलबाला है l यह सब मनुष्य के नास्तिक होने के लक्षण है , इस कारण प्रकृति को यह संदेश जाता है मनुष्य को ऐसी नास्तिकता ही पसंद है l प्रकृति मनुष्य को उसकी पसंद अपने तरीके से देती है l संभवत: विज्ञान का इतना शक्तिशाली हो जाना मनुष्य की संवेदनहीनता और आस्तिकता के ढोंग का प्रकट रूप है l विज्ञान ने मनुष्य के बनावटी व्यवहार को वास्तविक रूप दे दिया l वैज्ञानिक अनुसंधानों की वजह से हमें हर प्रकार की भोजन सामग्री , चिकित्सा सामग्री , मांस आदि सब कुछ सिंथेटिक, प्रयोगशाला निर्मित उपलब्ध है l विज्ञानं ने काम करने के लिए नौकर भी कृत्रिम दिए हैं l यदि असुरता को मिटाना है तो मनुष्य को अपने आचरण से अपने आस्तिक होने का संदेश प्रकृति को देना होगा l
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