श्री महादेव गोविन्द रानाडे के जीवन का प्रसंग है --- जब वे कुछ समय के लिए कोल्हापुर में जज के पद पर थे l उनके पिता के अनेक परिचित उन दिनों घर आने लगे कि वे उनके मुकदमे में सिफारिश कर दें l एक बार उनके दूर का कोई संबंधी जो प्रतिष्ठित व्यक्ति था , किसी बड़े झगड़े में फँस गया था , उसने उनके पिता से कहा कि वे रानाडे से सिफारिश करें कि वे उनके कागजात अच्छी तरह देख लें , तब मुकदमे का फैसला करें l उसके बार - बार अनुनय - विनय करने पर रानाडे के पिता को उस पर दया आ गई और उन्होंने अपने बेटे से कहा कि वे उसकी बात सुन लें l रानाडे बड़े पितृभक्त थे उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया l तब उस व्यक्ति ने कहा --- ' मैं आपको अपने कागज - पत्र दिखाना चाहता हूँ , जब आपको अवसर हो तो दिखाऊं l ' रानाडे ने बड़ी नम्रता से उत्तर दिया ---- जी नहीं , आज तो मुझे बहुत काम है , जब अवसर होगा तब आपको सूचना दे दूंगा l " जब वह सज्जन चले गए तब बहुत विनय के साथ किन्तु स्पष्ट शब्दों में उन्होंने अपने पिता से कहा ---- " मैं जानता हूँ कोल्हापुर के सभी लोग आपके परिचित हैं l वे सभी अपने मुकदमे में आपसे सिफारिश कराना चाहेंगे आप किस प्रकार सबके मन की बात पूरी कर सकेंगे ? इसलिए इस संबंध में अच्छी तरह विचार कर लीजिए , अन्यथा विवश होकर मुझे यहाँ से बदली करा लेनी पड़ेगी l "
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