पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कहना है ---- ' पराधीनता मनुष्य के लिए बहुत बड़ा अभिशाप है वह चाहे व्यक्तिगत हो अथवा राष्ट्रीय , उससे मनुष्य के चरित्र का पतन हो जाता है और तरह - तरह के दोष उत्पन्न हो जाते हैं l इसलिए कवियों ने पराधीनता को एक ऐसी पिशाचिनी की उपमा दी है जो मनुष्य के ज्ञान , मान , प्राण सब का अपहरण कर लेती है l दूसरों को पराधीन बनाना संसार में सबसे बड़ा अन्याय और दुष्कर्म है l आचार्य श्री लिखते हैं ---- जो कमजोर को अपना भक्ष्य समझे और छल - बल से उसके स्वत्व का अपहरण करने को ही अपनी विशेषता समझते हैं , उन्हें कम से कम ' मानव ' तो नहीं कहा जा सकता l इनकी गणना उन क्रूर हिंसक पशुओं में ही की जा सकती है , जिनका स्वभाव ही खूंखार बनाया गया है और जो सबके लिए भय का कारण होते हैं l " शारीरिक अथवा भौतिक दृष्टि से कोई व्यक्ति या देश पराधीन है तो वह प्रयास करने आजाद हो सकता है l जैसा कि हमने देखा कि पिछले सौ वर्षों में अनेक देश साम्राजयवाद के चंगुल से आजाद हुए लेकिन मानसिक पराधीनता सबसे बुरी होती है l जिस देश के लोग मानसिक पराधीनता से ग्रस्त होते हैं वे अपनी सभ्यता , अपनी संस्कृति , अपनी परंपरा आदि को अपने ही हाथों पतन के गर्त में डुबो देते हैं l ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तभी होती है जब उस देश के विचारशील और बुद्धिजीवी वर्ग की चेतना सुप्त होती है , स्वार्थ और लालच उन पर हावी होता है l इसी बात का फायदा चालाक लोग उठाते हैं और उन्हें अपने इशारों पर चलाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं l
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